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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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प्रमाद बंध का कारण है। जैसा तत्त्वार्थसूत्र में कहा भी है"मिथ्यावर्शनाविरतिप्रमावकषाययोगा बन्धहेतवः ॥१॥"
महाव्रत मोक्ष के कारण हैं। जैसा कि श्री शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णव में कहा है
महत्त्वहेतोगुणिभिः श्रितानि महान्ति मत्वा त्रिदशैतानि ।
महासुखज्ञाननिबन्धनानि महावतानीति सतां मतानि । अर्थ-प्रथम तो ये महाव्रत महत्ता के कारण हैं, इसकारण गुणी पुरुषों ने आश्रय किया है अर्थात् धारण करते हैं। दूसरे ये स्वयं महान् हैं इस कारण देवताओं ने भी इन्हें नमस्कार किया है । तीसरे महान् अतीन्द्रिय सुख और ज्ञान के कारण हैं, इस कारण ही सत्पुरुषों ने इनको महाव्रत माना है।
आचरितानि महद्भिर्यच्च महान्तं प्रसाधयन्त्यर्थम् ।
स्वयमपि महान्ति यस्मान्महाव्रतानीत्यतस्तानि ॥ अर्थ-इन पांच महाव्रतों को महापुरुषों ने आचरण किया है तथा महान् पदार्थ जो मोक्ष उसको साधते हैं तथा स्वयं भी बड़े हैं इसकारण इनका महाव्रत ऐसा नाम कहा गया है।
इन पार्षवाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाव्रत प्रमाद नहीं है। जिनको दिगम्बराचार्य के वाक्यों पर श्रद्धा नहीं है वे ही आषंग्रन्थ विरुद्ध महावत को प्रमाद लिखने व कहने का साहस कर सकते हैं।
-जे. ग. 13-8-70/1X/............... सभी कर्मभूमिज मनुष्य महाव्रत धारण नहीं कर सकते शंका-क्या कर्मभूमिज सभी मानव अणुव्रत, महाव्रत धारण करने के अधिकारी हैं ?
समाधान-आर्यखण्ड में कर्मभूमिज सभी मनुष्य अणुव्रत धारण कर सकते हैं, किन्तु महाव्रत धारण करने के अधिकारी निम्न पुरुष ही हैं।
शांतस्तपः क्षमोऽकुत्सो वर्णेष्वेकतमस्त्रिषु । कल्याणाङ्गो नरो योग्यो लिंगस्य ग्रहणे मतः ॥५१॥ कुलजातिवयोदेहकृत्यबुद्धिधादयः। नरस्य कुत्सिता व्यङ्गास्तवन्येलिङ्गयोग्यता ॥५२॥
(अमितगतियोगसारप्राभूत चारित्राधिकार ) जो पुरुष शान्त है, तपश्चरण में समर्थ है, दोषरहित है, तीन वर्षों [ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) में से किसी एक वर्ण का धारक है और कल्याणरूप सुन्दर शरीर के अंगों से युक्त है वह जिनलिंग के ग्रहण में अर्थात् महाव्रत धारण करने के योग्य माना गया है। कुकुल, कुजाति, कुवय, कुदेह, कुकृत्य, कुबुद्धि और कुक्रोधादिक ये मनुष्य के जिनलिंग ग्रहण में बाधक हैं। इनसे भिन्न सुकुलादिक पुरुष जिनलिंग ग्रहण की योग्यता को लिए हुए हैं।
-जें. ग. 19-11-70/VII/mi. कु. बड़जात्या
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