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व्यक्तित्व और कृतित्व 1
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मर्दन कराते हों अथवा स्त्री के शरीर का स्पर्श करते हों उनके ब्रह्मचर्य-महाव्रत कहां रहा। ऐसे मुनि तो भ्रष्ट मुनि हैं। वे द्रव्यलिंगी मुनि भी नहीं हैं वे नमस्कार करने योग्य नहीं हैं। देव, गुरु, शास्त्र की परीक्षा करना गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य है, क्योंकि उसको तो कुगुरु, कूदेव व कुशास्त्र का भक्ति से बचना है।
-जै.सं 23-10-84/V/ इंदरलाल छाबड़ा, लाकर
शंका-क्या द्रव्यलिंगी मुनि को तीन प्रकार के सम्यक्त्व में से कोई भी सम्यक्त्व नहीं होता? यदि नहीं होता तो उन्होंने मुनिव्रत कैसे धारण किया ? क्या बिना पहली प्रतिमा के मुनिवत हो सकता है ?
___ समाधान-जिन मुनियों के भावलिंग न हो और मुनि का द्रव्यलिंग हो ऐसे मुनि द्रव्यलिंगी मुनि कहलाते हैं । वे द्रव्यलिंगी मुनि पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें गुणस्थानवर्ती होते हैं। इनमें से जो द्रव्यलिंगी मुनि चौथे और पांचवें गुणस्थान वाले होते हैं उनके तीनों प्रकार के सम्यक्त्व में से कोई सा एक सम्यक्त्व हो सकता है। पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनियों के सम्यक्त्व नहीं होता है। बहुत से भावलिंगी मुनियों के मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी कषाय या सम्यमिथ्यात्व प्रकृति के उदय आ जाने से वे सम्यक्त्वरहित द्रव्यलिंगी मुनि हो जाते हैं। प्रथमानुयोग में बहुत सी ऐसी कथायें हैं कि जिन्होंने अवधिज्ञान के लालच के कारण, भाई की लाज रखने के कारण और ऐसे ही अनेक कारणों से मुनिव्रत धारण किये। ये तो स्थूल बाते हैं। किन्तु कुछ ऐसे भी सूक्ष्म कारण होते हैं जो केवलज्ञानगम्य हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ में अनेक स्थलों पर द्रव्यलिंगी मुनि का प्रकरण आया है वहाँ से विशेष जानकारी हो सकती है। पहली प्रतिमा पंचमगुणस्थान का भेद है। पंचम गुणस्थान को प्राप्त किये बिना भी पहले और चौथे गुणस्थानवर्ती जीव मुनिव्रत धारण कर सकते हैं, क्योंकि पहले और चौथे गणस्थान से जीव एकदम सातवें गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है।
-जे. सं 21-2-57/VI/ जु. म. टा. टूण्डला शंका-जिसके प्रत्याख्यान वा अप्रत्याख्यान कषाय का उदय है क्या वह मावलिङ्गी मुनि है ?
समाधान-चौथे व पाँचवें गुणस्थान वाले भी द्रव्यलिंगी होते हैं। यद्यपि वे सम्यग्दृष्टि हैं तथापि प्रत्याख्यानावरण व अप्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय हो जाने से उनके छठा या सातवाँगुणस्थान नहीं रहता। छठे-सातवें गुणस्थानवाले भावलिंगी होते हैं। उनके मात्र संज्वलनकषाय का उदय रहता है । त्रि० सा० गाथा ५४५ की श्री माधवचन्द्र विद्यदेव कृत संस्कृत टीका में गाथार्थ लिखा है-द्रष्यनिर्ग्रन्था नरा भावेन असंयताः देशसंयताः मिथ्यादृष्टयो वा उपरिमप्रैवेयकपर्यन्तं गच्छन्ति । जो द्रव्य से निर्ग्रन्थ हैं और भाव से असंयत हैं वे सम्यग्दृष्टि अथवा देशसंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्याइष्टि मुनि अन्तिम अवेयक पर्यन्त जाते हैं। यही गाथा गोम्मटसारकर्मकाण्ड बड़ी टीका में उद्धृत की गई है। जिसके प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान का उदय है वह यद्यपि सम्यग्दृष्टि है, किन्तु वह भावलिंगी मुनि नहीं हो सकता। मात्र संज्वलन का उदय होने पर ही भावलिंगी मुनि हो सकता है, द्रव्य से निर्ग्रन्थ होने के कारण मात्र द्रव्यलिंगी है।
-पत्राचार 11-9-78/ब. प्र. स. पटना १. द्रव्यलिंगी मुनि भव्य व अभव्य दोनों प्रकार के होते हैं २. अवेयक के देव मिथ्यात्वी भी होते हैं, सम्यक्त्वी भी
३. विजयादिक देव द्विचरमशरीरी होते हैं शंका-जैन शास्त्रों में कहा गया है कि द्रयलिंगी मुनि तथा अभव्य मोक्ष नहीं जा सकते । लेकिन फिर भी वे अपने तप के बल पर अहमिन्द्र एवं नववेयक के देव हो सकते हैं। आप हमें बतावै कि अहमिन्द्र एवं
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