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________________ [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार मिष्याष्टि या सम्यग्दष्टिजीव के यदि द्रव्यचारित्र है और भावचारित्र नहीं है तो वह जीव द्रव्यलिंगी मुनि है, उसके भावलिंग नहीं है । ७७२ ] जर तिरिय देसअयदा उक्कस्सेणच्चुदोत्ति णिग्गंथा । णय भयददेसमिच्छा गेवेज्जतोत्ति गच्छति ॥५४५ ॥ ( त्रिलोकसार ) अर्थ —- असंयत वा देशसंयत मनुष्य और तिथंच उत्कृष्टपने अच्युत कल्पपर्यंत जाय हैं, तातैं उपरि नहीं । बहुरि द्रव्य करि निग्रन्थ और भाव करि असंयत व देशसंयत व मिथ्यादृष्टि मनुष्य ते उपरिम ग्रंवेयक पर्यंत जाय हैं, ता ऊपरि नाहीं । - जै. ग. 13-5-71 / VII / र ला. जैन, मेरठ १. पंचमकाल में भावलिंगी मुनि होते हैं। २. जिस मुनि के द्रव्यलिंग भी पूरा नहीं पलता वे प्रपूज्य हैं शंका- श्री कानजी वर्तमान के सभी मुनियों को द्रव्यलिंगो बताते हैं और इसी अभिप्राय से वे किसी भी वर्तमान मुनि को नमस्कार नहीं करते तो क्या दिगम्बर जैन शास्त्रों के अनुसार सभी वर्तमान मुनि द्रव्यलिंगी ही हैं ? समाधान - इस पंचमकाल के अंत तक भावलिंगी मुनि होंगे। इस पंचमकाल के ३ वर्ष ८ मास १५ दिन के शेष रहने तक अन्तिम भावलिंगी मुनि श्री वीरांगद समाधिमरण को प्राप्त होंगे (तिलोयपण्णत्ती चौथा महाधिकार गाथा १५२१-१५३५ ) । जब इस पंचमकाल के अन्त तक भावलिंगी मुनि होंगे ऐसा आगमप्रमाण है तो वर्तमान काल में भावलिंगी मुनि होने में कोई बाधा नहीं है । किन्तु कौन मुनि भावलिंगी है उसकी पहिचान होना कठिन है । सो ही मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा है - ' तारतम्यकरि केवलज्ञान विषै भा है— कि इस समय श्रद्धान है कि इ समय नहीं है । जाते यहाँ मूलकारण मिथ्यात्वकमं है । ताका उदय होय, तब तो अन्य विचारादिक कारण मिलो वा मत मिलो स्वयमेव सम्यक् श्रद्धान का अभाव होय है । बहुरि ताका उदय न होय तब अन्य कारण मिलो वा तमिल स्वयमेव सम्यक् श्रद्धान होय जाय है। सो ऐसी अंतरंग समय सम्बन्धी सूक्ष्मदशा का जानना छद्मस्थ के होता नाहीं । तातें अपनी मिथ्या सम्यक् श्रद्धानरूप अवस्था का तारतम्य याको निश्चय होय सके नाहीं । केवलज्ञान विष भास है । ( पृ० ३९० ) एक अंतर्मुहूर्त विसे ग्यारवां गुरणस्थान सों पडिक्रमतं मिध्यादृष्टि होय बहुरि चढ़कर केवलज्ञान उपजावे । सो ऐसे सम्यक्त्व आदि के सूक्ष्मभाव बुद्धिगाचर श्रावते नाहीं ( पृ० ४०६ ) ।' 'बहुरि द्रव्यानुयोग अपेक्षा सम्यक्त्व मिथ्यात्व ग्रहें मुनि संघ विषै द्रव्यलिंगी भी हैं भावलिंगी भी हैं सो प्रथम तो तिनका ठीक होना कठिन है । जातं बाह्य प्रवृत्ति समान है । व्यवहार धर्म का साधन द्रयलिंगी के बहुत है । अर भक्ति करनी सो भी व्यवहार है । तातें जैसे कोई धनवान् होय, परन्तु जो कुल विषै बड़ा होय ताकौ कुल अपेक्षा बड़ा जान ताका सत्कार करे, तैसे आप सम्यक्त्वगुण सहित है, परन्तु जो व्यवहारधर्म विषै प्रधान होय, ताको व्यवहार धर्म अपेक्षा गुणाधिक मानि ताकि भक्ति करे हैं ।' मोक्षमार्ग प्रकाशक ५० ४१६ ४१७ सस्ती ग्रंथमाला ) Jain Education International इस कथन अनुसार द्रव्यलिंगी मुनि भी नमस्कार करने योग्य हैं । किन्तु द्रव्यलिंगी मुनि के बाह्य श्राचरण में कोई दोष नहीं होता । जिन मुनियों के पाँच महाव्रत भी पूर्ण नहीं है, पाँच समिति और तीन गुप्ति का जिनके निशान नहीं, वे तो द्रव्यलिंगी भी नहीं हैं । जो मुनि अपनी पोछी में रुपया रखते हों या कमंडल में या पुस्तक में नोट (रुपये) रखते हों उनके परिग्रहत्याग महाव्रत कहीं रहा। जो मुनि स्त्रियों से तेल की मालिश कराते हों अथवा शरीर का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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