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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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ध्यान का होना संभव नहीं है, क्योंकि अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता? शंका में जो दोष दिया गया वह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रकृत में एक वस्तु में चिन्ता का निरोध करना ध्यान है, यदि ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष पाता है। परन्तु यहाँ ऐसा ग्रहण नहीं करते हैं। यहां उपचार से योग का अर्थ चिन्ता है। उसका एकाग्ररूपसे निरोध प्रर्थात् विनाश जिस ध्यान में किया जाता है उस ध्यान का यहाँ ग्रहण करना चाहिये ।
जिसप्रकार नाली द्वारा जल का क्रमशः अभाव होता है या तपे हुए लोहे के पात्र में स्थित जल का क्रमशः अभाव होता है, उसीप्रकार ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा योगरूपी जल का क्रमशः नाश होता है ।७४। जिस प्रकार मन्त्र के द्वारा सब शरीर में भिदे हुए विष का डंक के स्थान में निरोध करते हैं और प्रधान क्षरण करनेवाले मन्त्र के बल से उसे पूनः निकाल लेते हैं। उसी प्रकार ध्यानरूपी मन्त्र के बल से युक्त हए सयोगिकेवली जिनरूपी वैद्य ब शरीर विषयक योगविष को पहले रोकता है और इसके बाद उसे निकाल फेंकता है।
___ "अंतीमुहत्तं किट्टीगदजोगो होदि। सुहमकिरियं अप्पडिवादिज्झाणं ज्झायदि । किट्टीणं च चरिमसमए असखेज भागे णासेदि। जोगम्हि णिरुद्ध म्हि आउसमाणि कम्माणि भवन्ति ।" [कषाय पाहुड सुत्त पृ० ९०५]
अंतर्मुहूर्त काल तक कृष्टिगत योगवाला होता है। उससमय केवलीभगवान सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान को ध्याते हैं। सयोगिगुणस्थान के अन्तिमसमय में कृष्टियों के असंख्यातबहुभागों को नष्ट करते हैं । (स्थितिकांडकघात द्वारा घात होने से ) योग का निरोष हो जानेपर नाम, गोत्र व वेदनीय इन तीन कर्मों की स्थिति शेष प्रायु के सहश हो जाती है।
"एकाग्रचितानिरोधोध्यानमित्यत्र च सूत्रे, चिताशब्दो ध्यानसामान्यवचनः। तेन श्र तज्ञानं क्वचिसध्यान. मित्युच्यते, क्वचित केवलज्ञानं, क्वचिम्मतिज्ञानं, क्वचिच्चश्र तज्ञानं, मत्यज्ञानं वा यतोऽविचलमेव ज्ञानं ध्यानम् ।"
__ [ मूलाराधना पृ० १६८९ ] 'एकाग्रचितानिरोधो ध्यानम्' इस सूत्र में चिन्ता शब्द ज्ञानसामान्य का वाचक है, इसलिये क्वचित् श्रतज्ञान को ध्यान कहते हैं क्वचित् केवलज्ञान को, क्वचित् मतिज्ञान को तथा मति और श्रतज्ञान को भी ध्यान कहते हैं, क्योंकि अविचल ज्ञान ही ध्यान है।
-जें. ग. 21-8-69/VII/ अ. हीरालाल
अनगार चारित्र
गणधर एवं श्रुतकेवली के अंतरंगबहिरंग परिग्रह से रहितता एवं वीतरागता
शंका-श्र तकेवली और गणधर को अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित और वीतरागी कहा है । सो किस प्रकार संभव है ?
समाधान-श्रुतकेवली या गणधर संयमी ही होते हैं, असंयमी नहीं होते हैं। कहा भी है"चोदसपुष्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छवि, तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि।" धवल पु० ९ पृ० ७१
अर्थ-चौदहपूर्वका धारक मनुष्य अर्थात् श्रु तकेवली मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता है और उस भव में असंयम को भी प्राप्त नहीं होता है।
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