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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
प्रश्न-तो यहाँ किसरूप में ग्रहण करते हैं ?
उत्तर-यहाँ उपचार से योग का अर्थ चिंता है। उस योग का एकाग्ररूप से निरोध अर्थात् विनाश जिस ध्यान में किया जाता है वह तीसरा शुक्लध्यान है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, यहाँ पूर्वोक्त दोष संभव नहीं है।
ध्यान मनसहित जीवों के होता है केवली के मन नहीं, वहां ध्यान नहीं है ( भावसंग्रह गा० ६८३ ) किंतु कर्मों की निर्जरा को देखकर उपचार से ध्यान कहा गया है ( पंचास्तिकाय गाथा १५२ की टोका )।
-ज.ग. 8-11-65/VII/ प्र. कंवरलाल
तेरहवें गुणस्थान के शुक्लध्यान का फल एवं ध्यान का स्वरूप शंका-ध्यान करने से कर्मों की निर्जरा होती है। ठीक इसी सिद्धान्त से १२ वें गुणस्थान तक ६३ प्रकृतियों को निर्जरा होती है और चौदहवेंगुणस्थान में शेष ८५ प्रकृतियों की निर्जरा होती है फिर १३ वें गुणस्थान में सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति यह तीसरा शुक्लध्यान है । इस ध्यान से तेरहवें-गुणस्थान में किस कर्म की निर्जरा होती है ? यदि नहीं तो तेरहवे-गुणस्थान में तीसरे शुक्लध्यान का क्या प्रयोजन रहा?
समाधान-तप बारहप्रकार का है। उनमें से छह प्रकार का बहिरंगतप है और छह प्रकार का अंतरंगतप है। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अंतरग तप हैं।
ध्यान अंतरंगतप है। तप से संवर और निर्जरा होती है।
तेरहवेंगुणस्थान में सूक्ष्म-क्रियाप्रतिपाति तीसरे शुक्लध्यान से 'सातावेदनीयकर्म' की बंधव्युच्छित्ति होती है तथा प्रायकर्म के अतिरिक्त अन्य ८४ प्रकृतियों की स्थिति कटकर अन्तमुहूर्त प्रमाण ( अर्थात् शेष आयुप्रमाण यानी चौदहवें गुणस्थान के काल प्रमाण ) रह जाती है। इसप्रकार तीसरे शुक्लध्यान से कर्म स्थिति निर्जरा भी होती है और संवर भी होता है तथा योग का अभाव भी होता है। कहा भी है
"चमणणिरोहेण विणा झाणं संभवदि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो त्ति? ण एस बोसो एगवत्थाम्ह निणिरोडो झाणमिदि जदिघेपदि तो होदि दोसो, ण च एवमेत्थ घेप्पदि । पुणो एत्थ कधं घेपदि त्ति भणिदो जोगो यारेण चिंता, तिस्से एयग्गेण गिरोहो विणासो जम्मि तं माणमिदि एत्य घेतव्वं; तेण ण पुवुत्तदोससंभवो त्ति । एत्थ गाहाओ
तोयमिव णालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा । परिहादि कमेण तहा जोगजालं उझाणजललेण ॥७४॥ जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं णिरु भए डंके । तत्तो पूणोऽवणिज्जदि पहाणज्झरमंतजोएण ॥७॥ तह बादरताविसयं जोगविसंज्झाणमंत बलजुत्तो। अणुभावम्मिणिरुभदि अवरोदि तदो वि जिणवेज्जो ॥७६।।
(धवल पु० १३ पृ० ८६ ) अर्थ-इसप्रकार है-केवलीजिन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तीसरे शुक्लध्यान को ध्याते हैं यह कथन नहीं बनता, क्योंकि केवलीजिन अशेषद्रव्य-पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सब कालमें एकरूप रहते हैं और इन्द्रिय ज्ञान से रहित हैं, अतएव उनका एक वस्तु में मन का निरोध करना उपलब्ध नहीं होता और मन का निरोध किये बिना
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