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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ-अप्रमत्तगुणस्थान में मुख्यता से धर्मध्यान कहा गया है। देशव्रत तथा प्रमत्तगुणस्थान में धर्मध्यान उपचार से समझना चाहिये । और धर्मध्यान निरालम्बरूप से गृहत्यागी, जिनलिंगरूपधारी ऐसे अप्रमत्तगुणस्थान में ही होता है। गृहस्थियों के निश्चल, शुद्ध एवं निरालम्ब धर्मध्यान होता है ऐसा जो कहता है वह ऋषियों के प्रागम को नहीं मानता । दृष्टिवाद में कहे गये गूणस्थानों को तथा ध्यानों को श्रद्धापूर्वक जानो, उसके अनुसार देशवती, मुख्यता से धर्मध्यान का ध्याता नहीं है ( किन्तु उपचार से है ), क्योंकि नित्य ही बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से घिरा हुआ वह प्रारम्भ संयुक्त गृहस्थी शुद्धात्मा को कैसे ध्या सकता है ? गृह के व्यापार क्या-क्या करने हैं वे सब अांखें मूदे हुए ध्यान में तिष्ठे हुए ( गृहस्थी ) के समक्ष रहते हैं । ऐसा गृहस्थी टिकुलिक ( अस्थिर ) ध्यान को ध्याता है। अथवा ध्यान करते हुए सोता है और सोते हए के विकल चित में ध्येय ठहरता नहीं है। आलम्बन रहित ध्यान में ध्यानों की सन्तति चलती रहती है, क्योंकि चित्त स्थिररूप से नहीं ठहरता है। इसलिए गृहस्थ की नित्य ही पंचपरमेष्ठी के रूप का अथवा मन्त्रों के अक्षरों का मालम्बन लेकर ध्यान करना चाहिए। गृह के व्यापारों में रहता हुप्रा भी यदि कोई ऐसा कहता है कि हमारा पुण्य से कुछ काम नहीं, क्योंकि वह संसार में गिराता है, तो उसका ऐसा कथन ठीक नहीं है। जब तक घर को नहीं छोड़ता तब तक पाप नहीं छुटते और पाप के छोड़े बिना पुण्य के कारण को मत छोड़ो। अशुभ के कारणभूत, ऐसे षट् कर्मों में नित्य लगा हुआ और बन्ध के भय से पुण्य के कारणों की इच्छा नहीं करता हुआ जो पुरुष है वह जिनदेव द्वारा कहे गये नौ पदार्थों के स्वरूप को नहीं मानता है और सत्पुरुषों द्वारा स्वयं को हास्य का पात्र बनाता है। इसी बात को श्रीमद वामदेवविरचित भावसंग्रह में कहा है कि
ये वदन्ति ग्रहस्थानामस्ति ध्यानं निराश्रयम ।
जैनागमं न जानन्ति दुधियः ते स्ववञ्चका ॥६२५॥ अर्थ-जो गृहस्थों के धर्मध्यान कहते हैं वे दूदि अपने आपको वंचन करने वाले हैं तथा जैनागम को नहीं जानते हैं। पद्मनन्दि पंचविशतिका में दान आधकार, श्लोक २ में इसप्रकार कहा है
प्रायः कुतो गृहगते परमात्मबोधः शुद्धात्मनो भुवि यतः पुरुषार्थसिद्धिः ।
दानात्पुनर्ननु चतुर्विधतः करस्था सा लीलयैव कृतपात्रजनानुसंगात् ॥ १५ ॥ भाषाकार का अनुवाद-जिस परमात्मा के ज्ञान से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; इन पुरुषार्थों की सिद्धि होती है उस परमात्मा का ज्ञान सम्यक्त्वी को घर पर रहकर कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता। परन्तु उन पुरुषार्थों की सिद्धि उत्तम आदि पात्रों को आहार, औषध, अभय व शास्त्ररूप चार प्रकार का दान देने से पल भर में हो जाती है। अतः धर्म, अर्थ आदि पुरुषार्थों के अभिलाषी सम्यग्दृष्टि को उत्तम आदि पात्रों में अवश्य दान देना चाहिए ॥१५॥ पंचाध्यायी २१८२४-८६० तथा ९१४-९३४ में यह बात कही गई है कि सम्यग्दृष्टि के ज्ञान चेतना होती है। सम्यग्दृष्टि के वह ज्ञानचेतना लब्धिरूप तो सदैव रहती है, किन्तु कभी-कभी उपयोगात्मक भी हो जाती है। श्री समयसार गाथा ३८७ से ३८९ तक इन तीन गाथाओं की टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने इस. प्रकार कहा है "ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना । सा द्विधा कर्मचेतना कर्मफलचेतना च । तत्र ज्ञानादन्यवेदमहं करोमीति अज्ञानचेतना । ज्ञानादन्यत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना। सा तु समस्तापि संसारबीज। संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात्। ततो मोक्षाथिना पुरुषेणाज्ञानचेतनाप्रलयाय सकलकर्मसंन्यासभावनां सकलकर्मफलसन्यासभावनां च नाटयित्वा स्वभावभूतः भगवती ज्ञानचेतनवैका नित्यमेव नाटयितव्या।" अर्थ-ज्ञान से अन्य भावों में ऐसी चेतना ( अनुभवन ) करना कि "यह मैं हूँ" सो प्रज्ञानचेतना है। वह दो प्रकार की है
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