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oयक्तित्व और कृतित्व ]
सम्यक्त्वी गृहस्थ
शुद्धात्मध्यान के अस्तित्व - नास्तित्व सम्बन्धी ऊहापोह
शंका --- भावसंग्रह में निरालम्बध्यान ७ वें गुणस्थान में बताया है । ऐसा ध्यान गृहस्थ के बतानेवालों को आगम का अज्ञाता और दुधिय व स्वयंचक बताया है। गृहस्थ को सालंब ध्यान और पुण्योपार्जन के कार्य करने का ही उपदेश दिया है। इसके विपरीत पंचाध्यायी आदि अनेक संस्कृत - प्राकृत एवं भाषा के ग्रन्थों में गृहस्थ सम्यक्वी के शुद्धात्मध्यान का उल्लेख किया है। इस विषय में पंचाध्यायी के निम्नस्थल विचारणीय हैं, अध्याय २ के श्लोक ८२४ से ८६० तथा ९१४ से ९३४ ( पं० मक्खनलालजी की टीका ) । श्लोक ८६० में तो यहाँ तक बताया है fe शुद्धात्मानुभव वास्तव में निर्विकल्पक है, ऐसा चतुर्थगुणस्थान से ही न मानकर जो ७ वे गुणस्थान से मानते हैं उन्हें श्लोक ८२७, ८३१ तथा ९१६ में वासनाग्रस्त मोहशाली प्रज्ञापराधी, दुराशय एवं कायक्लेशरूप श्रुताभ्यासी बताया है । इस तरह दोनों ग्रन्थों में परस्पर विरोध क्यों ? भावसंग्रह का समर्थन किन ग्रन्थों से होता है ?
समाधान - श्री देवसेनसूरि विरचित भावसंग्रह ग्रन्थ में इसप्रकार कहा है
"मुक्खं धम्मज्झाणं उत्तं तु पमायविरहिए ठाणे । देसविरए पमत्त उवयारेणेव णायव्वं ॥ ३७१ ।। जं पुखु वि निरालंबं तं झाणं गयपमायगुणठाणे । चत्तगेहस्स जायइ धरियंजिर्णालिंग रूवस्स ।। ३८१ ।। जो अजइ को वि एवं अस्थि गिहत्थाणणिच्चलंझाणं । सुद्ध ं च निरालंबं ण मुणइ सो आयमो जइणो ॥ ३८२ ॥ कहियाणि दिट्टिवाए पहुच्च गुणठाण जाणि झाणाणि । तह्मा स देसविरओ मुक्खं धम्मं ण झाएवं ॥ ३८३ ॥ कि जं सो गिवंतो बहिरंतर गंथ परिमिओ णिच्चं । बहु आरंभपउसो कह झायइ सुद्धमप्पाणं ।। ३८४ ।। घरवावारा केई करणीया अत्थि तेण ते सध्वे । झाट्ठियस पुरओ चिट्ठेति णिमोलियच्छिस्स । ३८५ | अहटिकुलिया शाणं शायद अहवा स सोवए झाणी । सोवंतो झायव्वं ण ठाइ चित्तम्मि विलम्मि ||३८६|| झाणाणं संताणं अहवा जाएइ तस्स आलंबणरहियस्स य ण ठाइ चित्तं थिरं जम्हा ॥३८७॥ तम्हा सो सालंबं ज्ञायउ झाणं पि गिह वई णिच्चं । पंचपरमेट्ठीरूवं अहवा मंतक्खरं तेसि ॥ ३८८ ॥ जइ भाइ को वि एवं गिह वावारेसु वट्टमाणो वि । पुणे अम्ह ण कज्जं जं संसारे सुवाडेई ॥ ३८९ ॥ जाम ण छंडइ गेहं ताम ण परिहरइ इंतयं पावं । पावं अपरिहरतो हेओ पुण्णस्स मा चयउ ।। ३९३ ।। असुहस्स कारहि चय कम्मच्छवकेहि णिच्च वट्टतो । पुण्णस्स कारणाई बंधस्स भएण णिच्छंतो ॥ ३९७ ॥ म मुणइ इय जे पुरिसो जिणकहियपयत्थणवसरूवं तु । अपागं सुयणमज्झे हासस्स य ठाणयं कुणई ॥ ३९८ ॥
झाणस्स ।
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