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आगमउवदेसाणा णिसग्गदो जं जिणप्पणीयाणं । मावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्सतल्लिंगं ॥ ५४ ॥ ( ध्यानशतक गा० ६७ ) जिण साहुगुणकिण पंसंसणाविणय दाणसं पण्णा । सुद-सील - संजमरदा धम्मज्झाणे मुख्यध्वा ॥५५॥
अर्थ - आगमोपदेश से अथवा निसर्ग से जो जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये पदार्थों का श्रद्धान होता है वह धर्मध्यान का लिंग है ।। ५४ || जिन और साधु के गुणों का कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दान सम्प नता श्रुत, शील और संयम में रत होना, ये सब कार्य धर्मध्यान में होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ।। ५५ ।।
धर्म-ध्यान का फल
अक्षपक ( क्षपकश्रेणी पर प्रारूढ़ नहीं हुए ) जीवों को देवपर्यायसम्बन्धी विपुलसुख मिलाना उसका फल है और गुणश्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा उसका फल है तथा क्षपक ( क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ ) जीवों के तो प्रसंख्यात गुणश्रेणीरूप से कर्म प्रदेशों की निर्जरा होना और शुभकर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग का होना धर्मध्यान का फल है । इस विषय में गाथायें हैं
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार |
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( धवल १३ पृ० ९६, ध्यानशतक ६८ )
होंति
सुहासव संवर- णिज्ञ्जरामरसुहाई बिउलाई । उझाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधोणि धम्मम्स || ५६ ॥ ( ध्यानशतक ६८ ) जह वा घणसंघाया खलेण पवहणाहया विलिज्जति । झाणपणोवहया तह कम्मघणा विलिति ॥ ५७ ॥
( धवल १३ पृ० ७७, ध्यानशतक ६९ )
अर्थ — उत्तम ध्यान से शुभास्रव, संवर, निर्जरा और देवों का सुख ये शुभानुबंधी विपुल फल होते हैं । ५६ । जैसे मेघपटल पवन से ताड़ित होकर क्षणमात्र में विलीन नष्ट ) हो जाता है वैसे ही धर्मंध्यानरूपी पवन से उपहृत होकर कर्मरूपी बादल भी विलीन ( नष्ट ) हो जाते हैं ।। ५७ ।।
अट्ठाईस प्रकार के मोहनीय की सर्वोपशामना होनेपर उसमें स्थित रखना, पृथक्त्ववितकंवीचारनामक शुक्लध्यान का फल है । परन्तु मोह का सर्वोपशम करना धर्मध्यान का फल है, क्योंकि कषायसहित धमंध्यानी के सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अन्तिमसमय में मोहनीयकमं की सर्वोपशमना देखी जाती है। तीन घातिया कर्मों का निर्मूल विनाश करना एकत्ववितकं प्रवीचारध्यान का फल है । परन्तु मोहनीय का विनाश करना घर्मंध्यान का फल है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के अन्तिमसमय में उसका विनाश देखा जाता है ।
श्री जयधवल भाग १ पृ० ६ पर भी कहा है
इन आर्ष वाक्यों से यह स्पष्ट है कि चतुर्थंगुणस्थान से दसवेंगुणस्थानतक साम्परायिक ( कषायसहित ) जीव होते हैं, अत: उनके धर्मध्यान होता है । उनके शुक्लध्यान नहीं होता, क्योंकि वह वीतरागी ( अकषायी ) जीवों के होता है । यद्यपि धर्मध्यान शुभोपयोगरूप है, क्योंकि यह सरागीपुरुष के होता है तथापि मोहनीयकर्म को जो कि सर्व कर्मों का राजा है, उन्मूलन कर देता है । एक छत्र जिसका राज है ऐसे मोहनीयकर्म का नाश, शुभोपयोगरूप धर्मध्यान ही करता है । शुक्लध्यान तो शेष तीनघातिया कर्मों को और चार अघातिया कर्मों का नाश
करता है ।
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