________________
ध्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ७३७
अर्थ-बहुत कहने से क्या लाभ, यह जितना भी जीवादि पदार्थों का विस्तार कहा है उस सबसे युक्त प्रौर सर्वनय समूहमय समय सद्भाव का ध्यान करे।
प्रश्न-यदि समस्त समय सद्भाव धर्मध्यान का ही विषय है तो शुक्ल ध्यान को कोई विषय शेष नहीं
रहता?
उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानों में विषय की अपेक्षा कोई भेद
प्रश्न-यदि ऐसा है तो दोनों ही ध्यानों में एकत्व अर्थात् अभेद प्राप्त होता है, क्योंकि दशमशक, सिंह, भेड़िया, व्याघ्र आदि द्वारा भक्षण किया गया भी, वसूला द्वारा छीला गया भी, करोतों द्वारा फाड़ा गया भी, दावानल के सिखमुख द्वारा असित किया गया भी, शीत, वात और आताप द्वारा वाधा गया भी, और सैंकड़ों करोड़ों प्रप्सराओं द्वारा लालित किया गया भी जो जिस अवस्था में ध्येय से चलायमान नहीं होता वह जीव की अवस्था ध्यान कहलाती है । इसप्रकार यह स्थिर भाव धर्म और शुक्ल दोनों ध्यानों में समान है, अन्यथा ध्यानरूप परिणाम की उत्पत्ति नहीं हो सकती ?
उत्तर-यह बात सत्य है कि इन दोनों प्रकार के स्वरूपों की अपेक्षा धर्म और शुक्लध्यान में कोई भेव नहीं है, किन्तु इतनी विशेषता है कि धर्मध्यान एक वस्तु में स्तोककाल तक रहता है, क्योंकि कषायसहित परिणाम का गर्भगृह के भीतर स्थित दीपक के समान चिरकाल तक अवस्थान नहीं बन सकता।
प्रश्न-धर्मध्यान कषायसहित जीवों के ही होता है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
उत्तर- असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, क्षपक और उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक और उपशामक, अनिवृत्तिकरणसंयत क्षपक और उपशामक तथा सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों के धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है, ऐसा जिनदेव का उपदेश है। इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान कषायसहित जीवों के होता है। परन्तु शुक्लध्यान के एक पदार्य में स्थित रहने का काल धर्मध्यान के अवस्थान काल से संख्यातगुणा है, क्योंकि वीतरागपरिणाम मरिण की शिखा के समान बहत काल के द्वारा भी चलायमान नहीं होता। इसलिये सकषाय और अकषाय स्वामी के भेद से तथा अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थित रहने के कारण धर्म और शुक्लध्यानों में भेद सिद्ध है।
इस धर्मध्यान में पीत, पद्म, शुक्ल ये तीन ही लेश्यायें होती हैं, क्योंकि कषायों के मन्द, मन्दतर और मन्दतम होने पर धर्मध्यान की प्राप्ति सम्भव है। इस विषय में गाथा
होंति कमविसुद्धाओ लेस्साओ पीय-पउम-सूक्काओ। धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्व-मंदाविभेयाओ ॥ ३ ॥
(धवल १३ पृ० ७६, ध्यान शतक गा०६६)। अर्थ-धर्मध्यान को प्राप्त हुए जीव के तीव्रमन्द प्रादि भेदों को लिये हुए क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यायें होती हैं ।
प्रश्न-धर्मध्यान से परिणमता है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है?
उत्तर-इस विषय में गाथायें हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org