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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
श्री मोक्षमार्गप्रकाशक में हिंसादि त्याग के विषय में इस प्रकार कहा है-'जे जीव हित बहित को जाने नाहीं, हिंसादि कषाय कार्यनिविर्ष तत्पर होय रहे हैं, तिनको जैसे वे पाप कार्यनि को छोड़ि धर्मकार्य विष लागे तसे उपदेश दिया। ताको जिन धर्म आचर्ण करने को सन्मुख भए, ते जीव गृहस्थधर्म का विधान सुनि प्रापतै जैसा धर्म सधै तैसा धर्म साधन विष लागे हैं। ऐसे साधन तें कषाय मंद हो है। ताके फल ते इतना हो है, जो कुगति विर्ष दुःख न पावे अर सुगति विर्षे सुख पावै । ऐसे साधन ते जिनमत का निमित्त बनया रहे। तहाँ तत्त्वज्ञानप्राप्ति होनी होय तो होय जाय बहरि जीवतत्त्व के ज्ञानी होय कर चरणानयोग को अभ्यासे है तिन को ए सर्व आचरण अपने वीतरागता भास हैं । एकदेश वा सर्वदेश वीतरागता भये ऐसी श्रावक ऐसी मुनि दशा होय है।'
इस प्रकार श्रावकवत या मुनि व्रत बीतरागभाव के माप हैं रागभाव के माप नहीं हैं ।
-गै.सं. 22 व 29-5-58/VI/ला. शिवप्रसाद
दूसरी प्रतिमा में व्रतों का पालन सातिचार या निरतिचार शंका-दूसरी व्रत प्रतिमा वाला बारह व्रतों को क्या निरतिचार पालेगा?
समाधान-दूसरी प्रतिमा वाले श्रावक को बारह व्रतों का निरतिचार पालन करना चाहिए। यदि कोई अतिचार लग जाय तो तुरन्त प्रायश्चित द्वारा उस दोष को धो डालना चाहिए।
-जे.ग. 14-12-72/VII/ कमलादेवी
देशसंयत के स्वल्पनिदान सम्भव है शंका-मोक्ष शास्त्र अध्याय ७ सूत्र १८ में निःशल्यो व्रती, कहा है किन्तु अध्याय ९ सूत्र ३४ में निदान आर्तध्यान देशविरत के कहा है । जिसके निदान है उसके सूत्र १८ के अनुसार व्रत कैसे सम्भव हैं ?
समाधान-इस प्रकार की शंका का उत्तर तत्त्वार्थवृत्ति टीका में इस प्रकार दिया गया है
"देशविरतस्यापि निदानं न स्यात् सशल्यस्य अतित्वाघटनात् । अथवा स्वल्प निवानशस्येनाणुवतित्वाविरोधात् देशविरतस्य चतुर्विधमप्यातं संगच्छत एव ।"
शल्यवाले के व्रतपना घटित नहीं होता है अतः देशविरत के निदान प्रार्तध्यान नहीं होता है। अथवा स्वल्प निदान शल्य का अणुव्रत से विरोध नहीं है, अतः देशविरत के चारों प्रकार के आर्तध्यान की संगति बैठ जाती है।
-जें. ग. 1-1-76/VIII/ ............... तीर्थंकरों के देशसंयम यथाकाल नियम से हो जाता है शंका-तीर्थकर अणुव्रत ग्रहण करते हैं या सीधा महाव्रत लेते हैं ? श्री पार्श्वनाथ भगवान की जयमाल में आठ वर्ष की अवस्था में अणुव्रत का कथन है ।
समाधान-सभी तीर्थंकरों के अपनी आठ वर्ष की आयु के पश्चात् अणूवत ग्रहण हो जाता है। उत्तर पुराण के ५३खें पर्व में कहा भी है
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