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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान-इस समय तो वह दयालु जन एवं अहिंसा उपासक निचली भूमिका में है अर्थात श्रावक है उसके कषाय अत्यन्त मंद न होने के कारण वह चूहे की जान बचाने का प्रयत्न करेगा, किन्तु प्रयत्न करता हुआ भी अथवा चूहे को छुड़ा लेने पर इस कार्य में अहंबुद्धि नहीं करता, क्योंकि इस प्रकार दया कार्य नहीं करने के भाव मिथ्यात्व के उदय में होते हैं । अहिंसा धर्म का वास्तविक उपासक मिथ्यादृष्टि नहीं होता।
बिल्ली दूध व अन्न के द्वारा अपनी उदरपूर्ति कर सकती है । अतः चूहे को छुड़ाकर अन्न आदि द्वारा बिल्ली की उदरपूर्ति हो जाने से अहिंसा का पालन होता है ।
-प. सं. 12-6-58/V/ को. घ. जान, किशनगढ़
अहिंसा शंका-किसी जीव को बचाया तो हिंसा हुई या अहिंसा ?
समाधान-अहिंसामयी धर्म है । दयामूलक धर्म है। इस प्रकार धर्म के लक्षण से ज्ञात होता है कि प्राणी मात्र पर दया अहिंसा है । कहा भी है
पवित्रीक्रियते येन, येनबोध्रियते जगत् । नमस्तस्मै दयायि, धर्मकल्पाडिघ्रपाय वै॥-ज्ञानार्णव १०.१
जो जगत् को पवित्र करे, संसार के दुःखी प्राणियों का उद्धार करे, उसे धर्म कहते हैं । वह धर्म दयामूलक है और कल्पवृक्ष के समान प्राणियों को मनोवाञ्छित सुख देता है, ऐसे धर्मरूप कल्पवृक्ष के लिये मेरा नमस्कार है।
सत्त्वे सर्वत्रचित्तस्य दयावं दयालवः।
धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ॥-यशस्तिलक० पृ० ३२३ सर्व प्राणिमात्र का चित्त दया ( दया से भीग जाना ) होने को अनुकम्पा कहते हैं। दयालु पुरुषों ने धर्म का परम मूल कारण अनुकम्पा कहा है। जीव दया अर्थात् जीव को बचाना श्रावक का धर्म है किन्तु इस दया में अहंकार नहीं होना चाहिए। क्योंकि जीव के बचने में मूल कारण जीव की आयु है। यदि जीव की आयु ही समाप्त हो गई तो उसे बचाने में कोई भी समर्थ नहीं है । अन्य प्राणी तो उस जीव के बचने में बाह्य निमित्त मात्र है। यह अनुकम्पा भाव यद्यपि पुण्यबन्ध का कारण है तथापि परम्परा मोक्ष का कारण है। इस सम्बन्ध में 'समयसार' में 'बन्ध अधिकार' भी देखना चाहिए।
-जें.ग. 11-1-62/VIII/.
जोवों को मारने से हिंसा होती है। यह भगवान को देशना है
शंका-कानजी भाई जीवों के मारने में कोई हिसा नहीं समझते। वे कहते हैं कि जीव और शरीर दोनों पृथक-पृथक स्वतंत्र व्रव्य हैं। तब दोनों को अलग-अलग कर देने में हिंसा कैसी? इससे क्या प्रतिदिन लाखों जीवों को मारनेवाले अनेक बड़े-बड़े कसाईखानों में जो जीव मारे जाते हैं उन मारनेवाले कसाइयों को भी हिंसा करने का पाप नहीं लगना चाहिए। फिर तो धीवर कसाई आदि को पापी नहीं समझना चाहिए। क्या कानजी भाई का यह मत दिगम्बर जैनधर्म के अनुसार है ?
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