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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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दि० जैन समाज में आज फिर पाण्डित्य समाप्त हो रहा है; क्योंकि पण्डित या धर्मशास्त्री का आर्थिक भविष्य घाटे का हो गया है । ५० वर्ष पूर्व पण्डित का मासिक वेतन पचास रुपये था। आज के बाजार को देखते हुए वह न्यूनतम ५०० रुपया महीना होना चाहिये । किन्तु समाज और सामाजिक संस्थाएँ ऐसा नहीं कर रही हैं । फलतः विद्यालयों को छात्र नहीं मिलते और जो मिलते हैं वे धर्म-शिक्षा की आड़ में लौकिक शिक्षा की ही साधना करते हैं । यह प्रकट कारण है पाण्डित्य के ह्रास का । मूल कारण यही है कि धर्मशास्त्र का ज्ञान जीव उद्धार की विद्या या कला थी । कालदोष से यह 'जीविका की कला' हुई और धर्म शास्त्र की शिक्षा से अब जीविका असंभव हो गई है । इसलिये धर्मशास्त्री या पण्डित होना बन्द हो रहा है या हुआ है । मुख्तार सा० को धर्मशास्त्र की सर्वाधिक साधना और उपस्थिति इसलिये थी कि इनके लिये यह कला, पुरुष की ७२ कलाओं में से दो मुख्य कलाओं में एक ( जीव - उद्धार की कला ) थी जीविका की कला नहीं । कहा भी है
कला बहत्तर पुरुष में, तामें दो सरदार । एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार ॥
इस दृष्टि से गृहस्थों में यदि कोई यथार्थ धर्म शास्त्री है; तो वे सतत स्वाध्यायी व्यक्ति ही हैं जिनमें मुख्तार सा० का नाम अग्रणी रहेगा। भले ही समाज कुछ पंडितों को प्रधान धर्मशास्त्री मानता हो, किन्तु यह भ्रान्ति है; क्योंकि, इन तथोक्त प्रधान पण्डितों के लिये जीवन के आदि से धर्मशास्त्र आजीविका का ही साधन है और जिस तरह पक्ष प्रतिपक्ष में पड़कर ये लोग धर्मशास्त्र के बल पर प्रमुखता को दबाये रखने में लगे हैं, उससे स्पष्ट है कि जीवन के अन्त तक भी धर्मशास्त्र इनकी आजीविका की ही कला रहेगा । तथा " फिलोसफर (धर्म शास्त्री) को खुदा मिलता नहीं" उक्ति ही ये चरितार्थ करेंगे । और यथार्थ आत्मार्थी मुख्तार सा० आदि को भी अपने पक्ष में घसीटने का अकृत्य भी करते रहेंगे; जबकि मुख्तार सा० उन जिनधर्मी महामनीषियों की परम्परा में हैं जिन्होंने अपने उद्धार के लिये सन्निकट अतीत में भी धर्मशास्त्र के स्वाध्याय को अपनाया था और प्राकृतसंस्कृत के पूरे जैन वाङ् मय का आलोड़न करके, उनकी भाषा करके हम सबके लिये आत्म-ज्ञान का मार्ग खोल दिया था ।
मुख्तार सto का अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी जीवन अविरत, विरत और महाव्रतियों के लिये भी क्रमशः चारित्र व ज्ञानाराधना का वह निदर्शन ( मॉडल ) है जो कि पंचम काल में निभ सकता है। इनकी साधना सतत वर्धमान रही है । अब ये शीघ्र ही शिवधाम को पावें, यही भावना है ।
आगम मार्गदर्शक रतन
* पण्डित लाडलीप्रसाद जैन पापड़ीवाल 'नवीन', सवाईमाधोपुर
विद्वद्वर ब्र० श्री रतनचन्दजी मुख्तार का जन्म सन् १९०२ में हुआ । प्रारम्भ से ही अध्ययन में प्रापकी विशेष रुचि रही । मैट्रिक के बाद केवल १८ वर्ष की आयु में ही आपने सहारनपुर न्यायालय में मुख्तारगिरी की परीक्षा उत्तीर्ण कर अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय दिया था। इस कार्य में आपको पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई थी परन्तु आपको केवल इतना ही अभीष्ट नहीं था, आपको तो बहुत आगे बढ़ना था । मुख्तारगिरी छोड़कर आप स्वाध्याय में प्रवृत्त हुए, स्वाध्याय के बल से आपने विशाल श्रुतसमुद्र का अवगाहन करने का पुरुषार्थ किया, छोटे-बड़े अनेक ट्रैक्ट लिखे, सिद्धान्तग्रन्थों की टीकायें प्रस्तुत कीं। 'श्रेयोमार्ग' जैसे आगमनिष्ठ पत्र
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