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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
करने रूप एक बहुत बड़ी सेवा स्व० मुख्तार सा० दीर्घकाल तक करते रहे थे। “षट्खंडागम" आदि प्राचीनतम गम्भीर ग्रन्थों के आप विशिष्ट अध्येता थे।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कर्मशास्त्र के विशेष ज्ञाता आचार्य श्री विजयप्रेम सूरि के शिष्य जब नवीन कर्मशास्त्रों का निर्माण करने को उद्यत हुए तो श्वे० ग्रन्थों के अतिरिक्त दिगम्बर कर्मशास्त्रीय ग्रंथों का आधार लेना भी आवश्यक समझा गया और उन्होंने मुख्तार सा० की इस विषय की विशेष योग्यता से प्रभावित होकर उन्हें पिंडवाड़ा बुलाया तो आपने अपने कुछ व्रत, नियमादि सम्बन्धी असुविधाओं की जानकारी दी तो पूज्य प्रेमसूरिजी ने उनकी इच्छित व्यवस्था करके सन् १९६२ में वहां बुलाया। आपने एक महीना वहाँ रहकर दिग० कर्म शास्त्रों के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी दी अर्थात् करणानुयोग का पठन-पाठन चला। इतने बड़े एक श्वेताम्बर आचार्य ने आपके ज्ञान की गरिमा का आदर किया, यह उनकी सरलता और गुणानुरागता का द्योतक तो है ही साथ ही आपका ज्ञान-चर्चा में यश लेना और श्वे० दिग० के भेद-भाव से ऊपर उठकर सहयोग देना विशेष रूप से उल्लेखनीय और सराहनीय है। आपका जीवन बहुत ही नियमबद्ध और संयमित था। अपने व्रत नियमों में तनिक भी ढील या शिथिलता आपको पसन्द नहीं थी । यह आपकी व्रतनिष्ठा और नियम पालन की दृढ़ता का द्योतक है।
आपने अनेक महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद और विवेचन लिखा है तथा आयु के चरम दिन तक गोम्मटसार जीवकांड की टीका लिख रहे थे और भी आपके कई ग्रन्थ प्रकाशित हए हैं।
मैंने आपसे अनुरोध किया था कि आप मौलिक ग्रन्थ भी लिखें जिसमें आपके दीर्घकालीन स्वाध्याय का नवनीत या सार प्रकाशित हो सके । कर्मशास्त्र के आप विशिष्ट विद्वान् हैं और उसको ठीक से समझना आज के लोगों के लिये बड़ी टेढ़ी खीर है। इसलिये युगानुरूप भाषा और शैली में स्वतंत्र ग्रन्थ लिखा जाय तो जिज्ञासुओं के लिये बहुत ही उपयोगी रहेगा । किसी अधिकारी विद्वान् के लिखे हुए ग्रन्थ से जानने योग्य बातें सरलता से समझी जा सकती हैं । पुराने ग्रन्थों की भाषा और शैली से नवयुवक आकर्षित नहीं होते हैं।
मेरा आपसे यह भी अनुरोध रहा कि एक ही भगवान महावीर के अनुयायी दिग० और श्वे० दो
फिी दूर हो गये हैं। उस खाई को पाटना बहुत ही आवश्यक है पर अपनीई छोड़ने को तैयार नहीं, इसलिये एक दूसरे का खण्डन करते रहकर पारस्परिक सौहार्द और सदभाव में कमी करते जा रहे हैं। आज के युग की यह सबसे बड़ी मांग है कि दोनों सम्प्रदायों के शास्त्रों का तटस्थतापूर्वक अध्ययन और मनन हो। भगवान महावीर के मूल सिद्धान्तों की खोज करके उनको जन-जन के सामने रखा जाय । उनमें जो परिवर्तन आया है और मान्यता भेद बढ़ते चले गये हैं वे कब और किस कारण से उत्पन्न हए और बढ़े? इसकी खोज की जाय और समन्वय का उपयुक्त मार्ग ढूढ़ा जाय । आपने अपने पत्र में लिखा कि "करणानुयोग सम्बन्धी मूल सूत्रों में श्वे० व दिग० सम्प्रदाय में विशेष अन्तर नहीं है । किन्तु उनके अर्थ करने में तीन विषयों में विशेष अन्तर हो गया है
(१) द्रव्यस्त्री मुक्ति (२) केवली कवलाहार और (३) सवस्त्र मुक्ति । श्वे० व दि० ग्रन्थों का मिलान करके ग्रन्थ लिखना सरल कार्य नहीं है। इस अवस्था में मेरे लिये तो असम्भव है ।" पर मैं इसे असम्भव नहीं मानता, क्योंकि दिग. शास्त्रों का तो आपका पर्याप्त अध्ययन था ही, केवल श्वे. आगमादि ग्रन्थों का अध्ययन तटस्थ भाव से कुछ समय निकालकर वे कर लेते तो प्राचीनतम मान्यताएं क्या थीं और उनमें परिवर्तन कब व क्यों आया? यह दोनों सम्प्रदायों के ग्रन्थों के उद्धरण देकर स्पष्ट कर दिया जाता। अपनी ओर से किसी भी मान्यता को सही या गलत न बतलाकर पाठकों के लिये गम्भीर विचार करने योग्य सामग्री इकट्री करके उनके सामने रख दी जाती।
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