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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार !
जूयं खेलंतस्स हु कोहो माया य माण-लोहा य । एए हवंति तिन्वा पावइ पावं तदो बहुगं ॥६०॥ पावेण तेण जर-मरणवीचिपउरम्मि धक्खसलिलम्मि । चउगइगमणावत्तम्मि हिंडई भवसमुद्दम्मि ॥६१॥ वसुनन्दि श्रावकाचार
अर्थ-जुआ खेलनेवाले पुरुष के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय तीव्र होती हैं, जिससे जीव अधिक पाप को प्राप्त होता है। उस पाप के कारण यह जीव जन्म-जरा-मरण रूपी तरंगों वाले, दुःखरूप सलिल से भरे हुए और चतुर्गतिगमनरूप प्राव? (भंवरों) से संयुक्त ऐसे संसार-समुद्र में परिभ्रमण करता है ।
विज्ञायेति महादोषं छूतं वीव्यंति नोत्तमाः। जनानाः पावकोष्णत्वं, प्रविशन्ति कथं बुधाः ॥६२॥ अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-जुआ को महादोषरूप जानकरि उत्तम पुरुष नाहीं खेले हैं। जैसे अग्नि का उष्णपना जानते सन्ते विवेकीजन हैं ते अग्नि में प्रवेश कैसे करें, अपितु नाहीं करे हैं ।
लाटरी भी एक प्रकार का जुआ है, क्योंकि इसमें जुए के दाव के समान एक रुपये के अनेक रुपये प्रा जाते हैं या वह रुपया हार दिया जाता है । लाटरी कोई व्यापार नहीं, दस्तकारी नहीं, न डाक्टरी है, न वकालत है, न अध्यापकपना है, अतः द्यूत में ही गर्भित होती है । अतः सप्तव्यसन के त्यागी या उत्तमपुरुष को लाटरी नहीं लगानी चाहिये।
-जें. ग. 13-1-72/VII/ ग. म. सोनी अणुवती वेश्या सेवन नहीं कर सकता शंका-ज्ञानपीठ से प्रकाशित उपासकाध्ययन पृ. १९१ पर ब्रह्मचर्याणुव्रत का कथन करते हुए लिखा है"अपनी विवाहित स्त्री और वेश्या के सिवाय अन्य सब स्त्रियों को अपनी माता बहिन और पुत्री मानना ब्रह्ममर्याणवत है। विशेषार्थ-सब धावकाचारों में विवाहिता के सिवाय स्त्री मात्र के त्यागी को ब्रह्मचर्याणुव्रती बतलाया है। परनारी और वेश्या ये दोनों ही त्याज्य हैं। किन्तु पं० सोमदेवजी ने अणुवती के लिये वेश्या को भी छूट दे दी है । न जाने यह छूट किस आधार से दी गई है।"
क्या अणवती भी वेश्यासेवन कर सकता है ?
समाधान-सप्तव्यसन दुर्गति के कारण होने से, इनका त्याग अणुव्रत से पूर्व हो जाता है । वेश्या सेवन भी व्यसन है प्रतः उसका त्याग तो अणुव्रत से पूर्व हो जाता है अतः ब्रह्मचर्याणुव्रत में वेश्यासेवन की छूट श्री मोमदेव जैसे महानाचार्य नहीं दे सकते थे । वे महाव्रती थे आजकल के असंयमी पंडितों की तरह असंयम का पोषण करने वाले नहीं थे।
जयं मज्जं मंसं वेसा पारद्धि-चोर-परयारं । दुग्गइगमणम्सेदाणि हेउभूवाणि पावाणि ॥५९॥ पावेण तेण दुक्खं पावइ संसारसायरे घोरे । तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा मण-वयणकाएहिं ॥९३॥ वसुनन्दि भावकाचार
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