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भ्यक्तित्व और कृतित्व ]
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नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् । वर्तयितु प्रभवंति, स्पष्टदृशः क्षत्रमौलिशेखरचरणाः ॥३८।। अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च ततपादाम्भोजाः। दृष्टया सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्याः ॥३९॥ शिवमजरमरुजमक्षयमध्यावाधं विशोकभयशम् । काष्ठागतसुखविद्या विभविमलं भजन्तिदर्शनशरणाः॥४०॥
निर्दोष सम्यग्दृष्टिजीव व्रतरहित होने पर भी नारकी, तियंच, नपुसक, स्त्री. नीचकूल, विकलाङ्ग, अल्पाय, दारिद्र को प्राप्त नहीं होता है, किंतु उसके इतना सातिशयपुण्यबंध होता है कि वह उत्साह, प्रताप, विद्या, वीर्य, कीति, कुलवृद्धि, विजय और ऐश्वर्य से सहित उच्चकुल में उत्पन्न होता है तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साधक पुरुषों में श्रेष्ठ होता है, अणिमा आदि आठ गुणों तथा श्रेष्ठ शोभा से युक्त होता हुआ देवों और देवांगनाओं की सभा में बहुत काल पर्यन्त रमण करता है। वह सरागसम्यग्दृष्टिजीव उस अतिशय पुण्यबंध के कारण समस्त पृथ्वी का स्वामी चक्रवर्ती होता है तथा धर्मचक्र का धारक तीर्थकर होकर मोक्ष सुख को प्राप्त होता है ।
मिथ्याडष्टि के सातिशयपुण्यबंध नहीं होता है इसीलिये वह देवेन्द्र, चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि पद को प्राप्त नहीं हो सकता है।
सम्यग्दष्टि के द्वारा किया हुआ पुण्यबंध मोक्षका कारण होता है, किंतु संसार का कारण नहीं होता है। श्री देवसेनाचार्य ने कहा भी है
सम्माविट्ठी पुष्णं ण होइ संसार कारणं णियमा । मोक्खस्स होइ हेउं जइ वि णियाणं ण सो कुणई ॥ ४०४ ॥ तम्हा सम्माविट्ठी पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवई।
इय णाऊणं गिहत्थो पुण्णं चायरउ जत्तेण ॥ ४२४ ॥ सम्यग्दृष्टि के द्वारा किया हुप्रा पुण्यबंध संसार का कारण कभी नहीं होता यह नियम है। यदि सम्यग्दष्टि के द्वारा किये हए पूण्य में निदान न किया जाय तो वह नियम से मोक्ष का ही कारण होता है। सम्यग्दष्टि का पुण्य मोक्ष का कारण होता है इसलिये गृहस्थ को यत्नपूर्वक पुण्य का उपार्जन करते रहना चाहिये।
पुण्यात् सुरासुरनरोरगभोगसारा, श्रीरायुरप्रमितरूपसमृखयो धीः ।
साम्राज्यमन्द्रमपुनर्भव-भावनिष्ठं, आर्हन्त्यमन्त्यरहिता खिलसौख्यमग्यम् ॥२०२।। अर्थ-सूर, असुर, मनुष्य और नागेन्द्र आदि के उत्तम-उत्तम भोग, लक्ष्मी, दीर्घआयु, अनूपमरूप, समलि. उत्तमवाणी, चक्रवर्तीसाम्राज्य, इंद्रपद, जिसे पाकर फिर संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता ऐसा अरहंतपद और अंतरहित समस्त सुख देने वाला श्रेष्ठ निर्वाणपद इन सबकी प्राप्ति एक पुण्य से ही होती है।
पुण्याचक्रधरधियं विजयिनीमैन्द्रीच दिव्यश्रियं । पुण्यातीपंकर श्रियं च परमां नःश्रेयसींचाश्नुते ॥ पुण्यावित्यसुभृच्छियां चतसृणामाविर्भवेद भाजनं । तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याग्जिनेन्द्रागमात् ॥१२९॥
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