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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
"यदेवायमात्मास्त्रवयोर्भवं जानाति तदेव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिक तद्धवज्ञानासिद्धः। यत्त्वात्मारवयो दज्ञानमपिनानवेभ्योनिवृत्तं भवति तजज्ञानमेव न भवति ।"
-समयसार गाथा ७२ टीका जिस समय प्रात्मा और आस्रव का भेद जान लिया उसीसमय क्रोधादिक प्रास्रवों से निवृत्त हो जाता है । जब तक उन क्रोधादि से निवृत्त नहीं हो तब तक उसके पारमार्थिक भेदविज्ञान की सिद्धि नहीं होती। आत्मा और आस्रवों का भेदज्ञान होने पर भी क्रोधादि प्रास्रवों से निवृत्त न हुआ तो वह ज्ञान ज्ञान ही नहीं। अर्थात् जिस मनुष्य ने चारित्र ग्रहण नहीं किया उस मनुष्य को पारमार्थिकज्ञान व श्रद्धान नहीं है ।
-जै. ग. 4-5-72/VII/ सुलतानसिंह
सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान का फल चारित्र है शंका-यदि ज्ञान का फल चारित्र है तो सम्यग्दर्शन का क्या फल है? सातिशयपुण्य का बन्ध होना क्या सम्यग्दर्शन का फल है ?
समाधान-सम्यग्दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्पन्न होने से सहचारी हैं, अतः इन दोनों में से किसी एक का ग्रहण करने से दोनों का ग्रहण हो जाता है । श्री अकलंकदेव ने कहा भी है
'युगपदात्मलाभे साहचर्यादुभयोरपि पूर्वत्वम्, यथा साहचर्यात पवंतनारक्योः पर्वतग्रहणेन नारदस्य ग्रहणं, नारग्रहणेन वा पर्वतस्य तथा सम्यग्दर्शनस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमत्तरं भजनीयम् ।' रा. वा. १/१ ।
अतः ज्ञान का फल चारित्र कहने से यह समझना चाहिये कि चारित्र सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान का फल है।
सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान जब तक जघन्यभाव से अर्थात सरागावस्था में परिणमते हैं तबतक सातिशयपुण्य का बन्ध होता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है
जम्हा दु जहण्णावो गाणगुणादो पुणोवि परिणमवि । अण्णसं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो मणिदो॥ १७१ ॥ समयसार
जबतक ज्ञानगुण जघन्यभाव से अर्थात सकषायभाव से परिणमता है तबतक ज्ञान गुण कर्मबंध ( पुण्यकर्मबंध ) करनेवाला कहा गया है।
उस सम्यग्दृष्टि के जो कर्मबंध होता है वह सातिशयपुण्यरूप होता है, इसलिये श्री समन्तभद्राचार्य ने सम्यग्दर्शन का फल निम्नप्रकार कहा है
सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्वरिव्रतां च वज्रन्ति नाप्यवृतिकाः ॥ ३५ ॥ ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धि विजयविभवसनाथाः । महाकुला: महार्था मानवतिलका भवन्ति वर्शनप्रताः॥३६ ।। अष्टगुणपुष्टितुष्टा, दृष्टिविशिष्टाःप्रकृष्टशोमाजुद्यष्टाः। अमराप्सरसा परिषवि, चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्तः स्वर्गे ॥ ३७॥
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