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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
असंख्यात से अभिप्राय
शंका-जगह-जगह पर असंख्यात के साथ में शत, सहस्र, लक्ष कोटि विशेषण लगे रहते हैं। इसका क्या मतलब है ? क्या वहाँ पर अंसंख्यात की निश्चित संख्या है ? यदि है तो कौनसी? यदि मध्यम केही भेद हैं तो फिर विशेषण की क्या आवश्यकता है ?
समाधान- असंख्यात के साथ में शत, सहस्र, लक्ष, कोटि प्रादि विशेषण लगाने से उन संख्याओं ( प्रमारणों) के परस्पर अल्पबहुत्व का ज्ञान हो जाता है। जहाँ कहीं पर भी किसी राशि का प्रमाण संख्यात, असंख्यात या अनन्त द्वारा कहा जाता है वहाँ पर उस प्रमाण की निश्चित संख्या से अभिप्राय है। किसी भी राशि का प्रमाण अनिश्चित संख्या नहीं होती। यदि किसी राशि का प्रमाण न माना जाय तो उसके अभाव का प्रसंग प्रा जायगा (ध० पु०३ पृ० ३०)। 'असंख्यात' व 'अनन्त' मतिज्ञान के विषय नहीं हैं। अतः उसकी निश्चित संख्या शब्दों द्वारा नहीं बतलाई जा सकती। कहा भी है-"जो संख्या पाँचों इन्द्रियों का विषय है वह संख्यात है। उसके ऊपर जो संख्या अवधिज्ञान का विषय है वह असंख्यात है। उसके ऊपर जो केवलज्ञान के विषय भाव को ही प्राप्त होती है वह अनन्त है।" वह असंख्यात यद्यपि मध्यम असंख्यात है तथापि उस मध्यम असंख्यात का निश्चित प्रमाण होने से उसके साथ शत, सहस्र, लक्ष, कोटि विशेषण लगाना सार्थक है। जैसे बीजगणित में a या b संख्या के साथ शत, सहस्र आदि विशेषण लगाना सार्थक है, क्योंकि इससे उसकी हीनाधिकता का ज्ञान हो जाता है।
-पत्रावार/ब. प्र. सरावगी पटना
अनन्त का स्वरूप
शंका-अनन्त का वास्तविक अर्थ क्या है ? यदि अनन्त का अन्त नहीं होता है तो अनन्तानन्त, युक्तानन्त, परीतानन्त की कल्पना असत्य है । यदि अंत होता है तो अनन्त कहना व्यर्थ है।
समाधान-अनन्त का वास्तविक अर्थ यह है-'जिस राशि में से व्यय होने पर भी उस राशि का अन्त न हो, वह अनन्त है।' क्षायोपशमिकज्ञान के विषय से जो राशि बाहर अर्थात् जो राशि क्षायोपशमिकज्ञान का विषय नहीं है, किन्तु व्यय होने पर अन्त हो जाती है, उस राशि को भी उपचार से अनन्त कह देते हैं, क्योंकि वह अनन्त केवलज्ञान का विषय है। अतः परीतानन्त, युक्तानन्त, जघन्य अनन्तानन्त व कुछ मध्यम अनन्तानन्त उपचार से अनन्त है, क्योंकि यह राशि क्षय सहित है। इस विषय में श्री वीरसेन स्वामी ने धवल सिद्धान्त ग्रन्थ में इस प्रकार कहा है-"व्यय होने पर समाप्त होनेवाली राशि को अनन्त रूप मानने में विरोध आता है। इस प्रकार कथन करने से अर्धपदगल परिवर्तन के साथ व्यभिचार हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि अधंदगल परिवर्तन काल को उपचार से अनन्तरूप माना है।" ष. खं० पु० ३ पृ०२५-२६ । 'एक एक संख्या के घटाते जाने पर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनन्त है। व्यय सहित होने से नाश को प्राप्त होनेवाला प्रघंपुद्गल परिवर्तन काल भी असंख्यात हो जानो, फिर भी अर्धपुदगल परिवर्तन काल को जो अनन्त संज्ञा दी गई है वह उपचार निमित्तक है । अनन्तरूप केवलज्ञान का विषय होने से अर्धपुद्गलकाल भी अनन्त है. ऐसा कहा जाता है।' प० खं० पु० ३ पृ. २६७ ।
-जै. सं. 6-11-58/V/ सिरेमल जैन
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