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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
जीवन का वास्तविक उद्देश्य तो आत्मकल्याण ही है परन्तु गृहस्थ जीवन विविध उलझनों व कठिनाइयों से भरा रहता है । मानव का मन उसमें ही अवलम्बन चाहता है अतः वह वास्तविक उद्देश्य की उपेक्षा करके अन्य विविध साधनों की ओर झुक जाता है। परन्तु आपने अपने जीवन को सत्य और प्रामाणिकता से सदा ओतप्रोत रखा। असत्य भाषण की वजह से मुख्तारपना छोड़ कर धर्ममार्ग में प्रवृत्त हुए तथा तभी से जीवन पर्यन्त धर्मग्रन्थों का अवलोकन, आलोड़न, मनन व चिन्तन किया। आपने लगभग सभी उपलब्ध सिद्धान्तग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। चारों अनुयोगों के आप परम श्रद्धालु थे, करणानुयोग के तो आप साक्षात् कोश ही मान लिये जायें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मुख्तार सा० के व्यक्तित्व में एक साथ अनेक गुणों के दर्शन होते थे। संयम और चारित्र के बिना ज्ञान की शोभा नहीं और ज्ञान के बिना संयम की भी शोभा नहीं, इन दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। मुख्तार सा० ज्ञानी तो थे ही, साथ में उज्ज्वल चारित्र के धनी भी। आपका जीवन अत्यन्त सरल और सादा था। जब
में मासोपवासी मुनि श्री सुपार्श्वसागरजी की सल्लेखना चल रही थी तब आप वहाँ पधारे थे । मुझे वहाँ ढाई माह तक आपके साथ रहने का सौभाग्य मिला तब मैंने देखा कि आपकी निजी आवश्यकताएँ अत्यल्प हैं; मैं तो देखता ही रह गया ।
माननीय स्वर्गीय मुख्तार सा० की सेवाएँ इतनी अधिक हैं कि उनके प्रति जितनी कृतज्ञता प्रकट की जाय, थोड़ी है । आपने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन किया । पत्रों में "शङ्का समाधान" के माध्यम से जो ज्ञान कराया, वह अविस्मरणीय है। मुझे फरवरी १९८० में सहारनपुर जाने का अवसर प्राप्त हुआ था तब आपसे बातचीत के दौरान मालम हआ कि आप ७८ वर्ष की उम्र में भी प्रतिदिन ८ से १० घण्टे तक लेखन कार्य करते थे । आप सदैव यूवकोचित उत्साह से भरपूर नजर आते थे। यह सब उनकी स्मृति, कार्यक्षमता, लगन, उत्साह एवं जिनवाणी सेवा की भावना का फल है। इस अवस्था में भी आपकी कार्यक्षमता देखकर यही विचार होता था कि किसी को दीर्घायु मिले तो ऐसी ही मिले, अन्यथा दीर्घायु होना भी आज के युग में एक अभिशाप ही है क्योंकि तब व्यक्ति दूसरों की अपेक्षा व सेवा पर जीता है ।
आयु के अन्तिम वर्षों में भी आपको अध्ययन, चिन्तन व लेखन की ओर ही उन्मुख देखकर प्रसन्नता होती थी। मुख्तार सा० अन्तिम समय तक अपनी साधना में पूर्ण सजग थे। मैं उन्हें अपनी विनय युक्त श्रद्धा अर्पित करता हूँ और यही कामना करता हूँ कि वे शीघ्र केवलज्ञानी बनें।
सरस्वती के उपासक : बाबूजी * स्व० ब्र० सुरेन्द्रनाथ जैन, ईसरी बाजार, बिहार
बाबजा बहमूखा त्रातमा सपनामा
हमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका अल्प शब्दों में किस प्रकार परिचय दिया जाए? उनमेंअत्यन्त निस्पृह भाव से सरस्वती देवी की उपासना करते हुए निरन्तर ज्ञानोपयोग की रक्षा करने का जो गुण था, इससे मैं सर्वाधिक आकृष्ट हूँ, मेरी दृष्टि में यही संवर-निर्जरा का मुख्य कारण है।
हम सब भी इसी लक्ष्य के साथ अपनी वर्तमान पर्याय को सार्थक बनावें, ऐसी भावना है।
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