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व्यक्तित्व और कृतिस्व ]
पर्याप्त निगोद मनुष्य बन सकता है।
शंका- लग्ध्यपर्याप्तक निगोव जीव क्या मनुष्यायु का बंध कर सकता है ? यदि कर सकता है तो कब करता है और किन परिणामों से मनुष्यायु का बंध होता है ?
समाधान - लब्ध्यपर्याप्तक निगोद जीव मनुष्यायु का बंध कर सकता है और मरकर मनुष्य हो जाता है । कहा भी है
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'पंचिदियतिरिक्खसण्णी असण्णी अपज्जता पुढवीकाइया श्राउकाइया वा वणव्कइकाइया णिगोद जीवा वारा हुमा वादरवण विकाइया पत्तयसरीरा पज्जत्ता अपज्जत्ता बीइंदिय-ती इंदिय- चउरिदिय पज्जत्तापज्ञ्जत्ता तिरिक्खातिरिक्तेहि कालगदसमाणा कदि गदीओ गच्छति ? ॥ ११२ ॥ दुवे गंदीओ गच्छंति तिरिक्खर्गाव चेदि ।। ११३ ।। " ( ध. पु. ६ पृ. ४५७ )
अर्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञा व प्रसंज्ञी दोनों अपर्याप्त, पृथिवीकायिक या जलकायिक या वनस्पतिकायिक या निगोद जीव इनके बादर या सूक्ष्म व बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर इन सबके पर्याप्त व अपर्याप्त जीव और द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियपर्याप्त व अपर्याप्त ये सब तिथंच मरण करके कितनी कितनी गतियों में जाते हैं ? दो गतियों में जाते हैं । तिर्यञ्च व मनुष्यगति इन दो गतियों में जाते हैं ।
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लब्ध्यपर्याप्तक निगोद जीव की तृतीय भाग प्रायु शेष रहने पर मनुष्यायु का बंध हो सकता है और अपने योग्य विशुद्ध परिणामों से मनुष्यायु का बंध होता है ।
शंका-सर्वेऽपर्याप्तका जीवाः सूक्ष्मकायाश्च तैजसाः ।
पर्याप्त ( लग्ध्यपर्याप्तक ) भी मनुष्यों में उत्पन्न हो सकते हैं
—जै. ग. 28-11-70 / VII / शास्त्र सभा, रेवाड़ी
वायवोऽसंज्ञिनश्चैषां न तिर्यग्भ्यो विनिर्गमः ।। ( त. सा. २।१५३ )
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उपर्युक्त श्लोक शुद्ध नहीं लगता है। पंचसंग्रह २३१ गाथा ३५६-५७ के अर्थ में लिखा है कि पं. अपर्याप्त १०९ प्रकृतियों को बाँधते हैं, यानी मनुष्यायु को भी बाँधते हैं। अन्य सिद्धान्त ग्रंथों में भी ऐसा ही कथन है । फिर अपर्याप्त मनुष्यगति में कैसे नहीं जा सकता ? इसके लिये धवल ग्रंथराज पु. ६ पृ. ४५७ सूत्र ११२ भी द्रष्टव्य है ।
समाधान - तस्वार्थसार पृ० ७२, श्लोक १५३ अशुद्ध है । वस्तुतः ऐसा नहीं होना चाहिए। वैसे ही श्लोक सं० १५७ में तैजसकायिक तथा वायुकायिक का कथन है । घवल पु० ६ का कथन ठीक है ।
- पत्राचार 14-3-80 / ज. ला. जैन, भीण्डर
मनुष्यतियंच को गत्यागति
शंका- मनुष्य मरकर मनुष्य ही हो, देव मरकर देव ही हो और नारकी मरकर नारकी ही हो, अन्य रूप से न हो तो क्या आपत्ति है ? यथा हिंसा अहिंसा में, अन्धकार प्रकाश में, ज्ञान चारित्र में, जड़ चेतन में, नीम आम्र में विष अमृत में कमी परिणत नहीं होते ।
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