________________
५९. 1
[ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार :
समस्त अग्निकायिक और वायुकायिक संक्लिष्ट जीवों के शेष गतियों में जाने योग्य परिणामों का अभाव पाया जाता है।
- ग. 4-9-69/VII/सु. प्र. जन सरीसृप दूसरे नरक तक जाते हैं। शंका-सरीसृप असंज्ञी होता है । वह दूसरे नरक तक कैसे जाता है ?
समाधान-सरीसृप दूसरे नरक तक जाता है और असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक जाता है ऐसा आषं वाक्य है। अतः सरीसप संज्ञी है।
"पढमधरंतमसणी पढमविदिया सरिसओ जादि।"(ति०प० २।२६४)
प्रथम नरक के अन्त तक असंज्ञी उत्पन्न होता है तथा प्रथम और द्वितीय में सरीसप जाता है । "धर्मामसंज्ञिनो यान्ति वशान्ताश्च सरोसपाः।" ( तत्वार्थसार २११४६ ) असंज्ञी जीव धर्मा-प्रथम नरक में जाते हैं और सरीसृप बंशा नामक दूसरे नरक तक जाते हैं ।
प्रायः सभी आचार्यों ने सरीसृप को दूसरे नरक तक जाने का विधान किया है और असंज्ञी जीवों का प्रथम नरक तक जाना बतलाया है । इससे ज्ञात होता है कि सरीसृप संज्ञी होता है ।
-णे. ग. 27-7-69/VI/स. प्र. जैन असंज्ञी भी नरक में जा सकता है शंका-क्या बिना मन के भी असंजी जीव इतना पाप कर सकता है कि वह मरकर नरक में चला जाय?
समाधान-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तो इतना पुण्य-पाप नहीं कर सकते कि वे मरकर स्वर्ग या नरक में उत्पन्न हो जावें । असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त इतना पुण्य या पाप कर सकता है जिससे उसको देवायु या नरकायु का बंध हो सकता है । कहा भी है3 . "चिदिय तिरिक्ख असष्णिपज्जत्ता तिरिक्खा तिरिक्खेहि कालगव-समाणा कदि गदीओ गच्छति ॥१०॥ वत्सारि गदीमो गच्छंति णिरयदि तिरिक्खगदि मणुसगदि देवगदि चेदि ॥१०॥ णिरएसु गच्छंता पढमाए पुढवीए गेरइएसु गच्छति ॥१०९॥ देवेसु गच्छंता मवणवासिय-वणवेंतरदेवेसु गच्छति ॥१११॥ (ध. पु.६ पृ. ४५५-४५६)
अर्थ-पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्त तिथंच जीव तिर्यंचपर्याय से मरण कर कितनी गतियों में जाते हैं ? चारों गतियों में जाते हैं-नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगति । नरकों में जाने वाला प्रथम नरक में ही जाता है। देवों में जाने वाला भवनवासी और व्यन्तर देवों में ही जाता है।
अन्यत्र भी कहा है-"पढमधरंतमसण्ण ।" (ति० प० २।२८४ ) "प्रथमायामसंजिन उत्पद्यन्ते ।" (त. रा. ३।६ ) "धर्मामसंज्ञिनो यान्ति ।" ( त. सा. २।१६६ ) ।
इन उपयुक्त पार्ष ग्रन्थों में भी यही कहा गया है कि असंज्ञी जीव मरकर प्रथम नरक में भी उत्पन्न हो सकता है।
-णे. ग. 26-11-70/VII) शास्तसभा, रेवाड़ी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org