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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
गत्यागति
सातवें नरक से निकलकर तियंच बना जीव पुनः सातवें नरक में नहीं जाता शंका-सातवें से निकलकर जीव तियंच होकर पुनः छठे या सातवें नरक में जा सकता है या नहीं ?
समाधान-सातवें नरक में पर्याप्त मनुष्य और स्वयंभूरमण समुद्र का मत्स्य मरकर उत्पन्न होता है। स्वयम्भूरमण का मत्स्य सम्मूर्च्छन होता है, किन्तु सातवें नरक से निकलकर गर्भज तियंच होता है। अतः वह गर्भज तियंच मरकर मत्स्य होकर सातवें नरक जा सकता है। सातवें नरक से निकल कर सिंह आदि क्रूर तियंच होकर पांचवें नरक तक ही जा सकता है । कहा भी है
"पंचम खिदिपरियंतं सिंहोइस्थि वि छ?खिदि अंतं । आसत्तमभूवलयं मच्छा मणुवा य वच्चंति" ॥२-२८६॥ ति. प.। पांचवीं पृथिवी पर्यन्त सिंह, छठी पृथिवी तक स्त्री और सातवीं भूमि तक, मत्स्य एवं मनुष्य ( पुरुष ) उत्पन्न होते हैं।
"णिक्कंता णिरयादो गम्भेसुकम्म सेणिपज्जते। परतिरिएसु जम्मदि तिरिचिय चरमपुढवीए ॥२-२८९॥ । ति.प.) नरक से निकले हुए जीव गर्भज कर्मभूमिज, संज्ञी एवं पर्याप्त ऐसे मनुष्य और तियंचों में ही जन्म लेते हैं। परन्तु अन्तिम पृथिवी से निकला हुआ जीव केवल तिर्यंच ही होता है। अर्थात् मनुष्य नहीं होता ।
"मत्स्यः सप्तमनरकं गत्वा ततः प्रच्युत्य तियंगजीवो भूत्वा मृत्वा मत्स्यः संभूय मृत्वा सप्तमनरकं गच्छति ।" (त्रि. सा. गा. २४४ टीका)
मत्स्य मरकर सातवें नरक गया, वहां से निकलकर गर्भज तियंच हुमा फिर मरण कर मत्स्य हो सप्तम नरक गया।
-जे'. ग. 16-3-78/VIII/र. ला.जैन, मेरठ एक जीव की अपेक्षा देव या नारकी मरकर पुनः अन्तर्मुहूर्त बाद
देव या नारको बन जाता है शंका-त. रा. वा० पृ० १५५ पर जो वैक्रियिक शरीर का जघन्य अन्तर बताया है वह कैसे घटित होता है ?
समाधान-वैक्रियिकशरीर का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त बतलाया है । देव व नरकगति का जघन्य अन्तर भी अन्तर्मुहूर्त है । ध. पु. ७ पृ. १८७ व १९० पर इस प्रकार कहा है
"एगजीवेण अंतरायुगमेण गवियाशुवादेण णिरयगदीए गैरइयाणं अंतरं केवचिरं कालावो होदि ॥१॥ जहणेण अंतो मुहुत्तं ॥२॥ (धवल पु० ७ पृ० १८७ )
अर्थ-एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम से गतिमार्गणानुसार मरकगति में नारकी जीवों का मन्तर कितने काल तक होता है ? ॥१॥ कम से कम अन्तमुहर्त काल तक नरकगति से नारकी जीवों का अंतर होता है ।।२।।
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