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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
श्री वीरसेन आचार्य ने तथा श्री १०८ पूज्यपाद आदि आचार्यों ने जो कुछ भी आर्षग्रंथों में कथन किया है वह सर्वज्ञ की वाणी के अनुसार किया है, जो उन्हें गुरुपरम्परा से प्राप्त हुआ था। वे वीतरागी निग्रंथ महान् आचार्य हए हैं। अन्य पुरुषों के समान उन्होंने अपनी तरफ से कुछ नहीं लिखा है। अतः उपर्युक्त कथन प्रामाणिक हैं।
प्रश्न-अपमृत्यु सकारण है या निष्कारण ? क्या पर-भव का आयुबंध ही इस प्रकार का होता है ?
उत्तर-अमुक जीव की अपमृत्यु अवश्य होगी इस प्रकार का कोई आयुबंध नहीं होता। औपपादिक आदि जीवों के अतिरिक्त जो जीव हैं उनके भी अपमृत्यु का नियम नहीं है, क्योंकि उन सबकी अपमृत्यु नहीं होती। श्री धवल पु० ६ पृ० ७० पर कहा है कि संख्यात वर्ष की आयु वाले ( कर्मभूमियां ) मनुष्य, तियंचों की प्राय का कदलीघात भी होता है और अधः स्थिति गलन भी होता है। यहाँ पर प्रधःस्थिति गलन का अर्थ है कि कदलीघात के बिना प्राय का प्रति समय एक-एक समय की स्थिति का कम होना। इतनी विशेषता है कि परभव सम्बन्धी आयबंध के पश्चात् भुज्यमान आय का कदलीघात नहीं होता। (धवल पु० १० पृ० २३७ )
श्री सर्वार्थ सिद्धि के 'इतरेषामनियमः' इस वाक्य से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि औपपादिक आदि से भिन्न अन्य जीवों के कालमरण या प्रकालमरण का नियम नहीं है, अर्थात् इतर जीवों का अकालमरण ही होगा. ऐसा नियम नहीं है।
श्री भास्करनन्दि आचार्य के 'तेभ्योऽन्ये तु संसारिणः सामर्थ्यादपवायषोऽपि भवन्तीति गम्यते' इस वाक्य में 'अन्ये' शब्द से यह भी ज्ञात होता है कि प्रौपपादिक आदि से भिन्न अन्य संसारी जीवों के अपमृत्य होती भी है और ( अपमृत्यु ) नहीं भी होती।
अमुक जीव की अपमृत्यु अवश्य होगी, इस प्रकार का कोई प्रायुबंध नहीं होता । जिन जीवों को करणानुयोग का ज्ञान नहीं है वे ही ऐसा कहते हैं कि जिस जीव की सोपक्रम प्रायु है उसकी मृत्यु के लिये ऐसा नियम है कि उसकी आयु नियम से उदीरणारूप होगी और उदयरूप से नहीं होगी।' उन अज्ञानियों को यह भी खबर नहीं कि जिस आयुकर्म का उदय नहीं है उस आयु कर्म की उदीरणा भी नहीं होती। वे ख्याति व पूजा की चाह में यद्वा तद्वा पार्षविरुद्ध उपदेश देकर अपने को भी संसार में रुलाते हैं और अपने अनुयायी जीवों को भी संसार में रुलाते हैं।
नारकी, देव, भोगभूमियों के मनुष्य व तिथंच और तद्भव मोक्ष जाने वाले मनुष्यों की प्रायु का कदलीघात नहीं होता है। शेष जीवों की आयु के लिये नियम नहीं। यदि शेष जीवों की आयु के कदलीघात का नियम मान लिया जावे तो आय कर्म के उत्कृष्ट अबाधाकाल पूर्व कोटि के विभाग के अभाव का प्रसंग आ जायगा। किन्तु आर्ष ग्रन्थों में उत्कृष्ट अबाधाकाल पूर्व कोटि का त्रिभाग कहा है, अतः कदलीघात का नियम नहीं है।
१. उदयम्सुदीरणरस य सामित्ता दो ण विप्नड विसेसो। __मातूण तिण्णिठाणं पमत्तलोई अजोई य ॥४४॥ (पं. स. 3/४४ ज्ञानपीठ) 2. 'पुटवकोडित्तिभागो आबाधा' । (षटूखण्डागम 1, E-६, सूत्र 23 घ. पु. ६, पृ. १०)
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