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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
" तदभावे पुनरायुर्वेद प्रमाण्य चिकित्सितादीनां क्व सामर्थ्योपयोगः । दुःखप्रतिकारादाविति चेतु तथैवापमृत्युप्रतिकारादौ तदुपयोगोस्तु तस्योभयथा दर्शनात् ।" ( श्लोक वार्तिक पृ० ३४३ )
अर्थ-अकाल मृत्यु अर्थात् जिस मृत्यु का काल व्यवस्थित ( नियत ) नहीं है, ऐसी अकाल मृत्यु के अभाव में आयुर्वेद की प्रमाणभूत चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा ( आपरेशन ) श्रादि की सामर्थ्य का प्रयोग कि प्रकार किया जायगा, क्योंकि चिकित्सा आदि का प्रयोग अकाल मृत्यु के प्रतिकार के लिये किया जाता है । यदि कहा जाय कि चिकित्सा आदि का प्रयोग दुःख के प्रतिकार के लिये किया जाता है, तो इस पर आचार्यं कहते हैं कि जिस प्रकार चिकित्सा आदि के प्रयोग से दुःख की निवृत्ति होती है उसी प्रकार चिकित्सादि की सामर्थ्य के प्रयोग से अकाल मृत्यु की भी निवृत्ति होती है, क्योंकि दुःख और अकालमृत्यु इन दोनों के प्रतिकार के लिये चिकित्सा का प्रयोग देखा जाता 1
श्री जिनेन्द्र भगवान ने उपर्युक्त उपदेश दिव्यध्वनि द्वारा दिया है अत: जैसा जिनेन्द्र भगवान ने उपदेश दिया है वैसा ही जाना है, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी नहीं हैं ।
जिनेन्द्र भगवान ने दया का उपदेश दिया है। जैसा कि श्री कुंदकुंद आचार्य ने बोधपाहुड में कहा है'धम्मोदय विशुद्ध' अर्थात् धर्म वही है जो दया करि विशुद्ध है ।
यदि सबका मरण काल नियत होता तो सर्वज्ञ दयाधर्म का उपदेश तथा चिकित्साशास्त्र का उपदेश क्यों देते ? श्री सर्वज्ञदेव ने दयाधर्म तथा चिकित्साशास्त्र का उपदेश दिया है अतः इससे सिद्ध होता है कि सब जीवों का मरणकाल नियत नहीं है अर्थात् किन्हीं जीवों का अकालमरण भी होता है । श्री अतसागर सूरि ने तस्वार्थवृत्ति अध्याय २ सूत्र ५३ की टीका में कहा है
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"अन्यथा दयाधर्मोपदेश चिकित्साशास्त्रं च व्यर्थं स्यात् । "
अर्थ - श्रकाल मरण को न मानने से दयाधर्म का उपदेश और चिकित्सा शास्त्र व्यर्थं हो जायेंगे ।
विष-भक्षण, शस्त्र प्रहार आदि के द्वारा भुज्यमान आयु की स्थिति कम होकर अनियत समय में मरण संभव है इसीलिये मनुष्य विषभक्षण आदि से बचता है । श्री भास्करनन्दि आचार्य ने कहा भी है
“विषशस्त्रवेदनादि-बाह्य-विशेष निमित्त-विशेषेणापवर्त्यते ह्रस्वीक्रियते इत्यपवत्यं ।" अर्थात् विषभक्षण, शस्त्र प्रहार और वेदना श्रादि बाह्य विशेष निमित्तों से प्रायु का ह्रस्व ( कम ) करना अपवत्यं आयु है ।
इस प्रकार सर्वज्ञ के उपदेश द्वारा अकाल मरण सिद्ध हो जाता है । कहा भी है
परिज्ञाते हितान्तके ।
आयुर्यस्यापि दैवज्ञ : तस्यापि क्षीयते सद्यो
निमित्तान्तरयोगतः ॥ ६७ ॥ ( सार समुच्चय )
अर्थ - भविष्य के भाग्य - ज्ञाता द्वारा, किसी ( कर्मभूमिज ) की आयु का हितान्त अर्थात् अमुक समय पर मरण होगा, ऐसा जान भी लिया जावे तो भी विपरीत निमित्तों के मिलने पर उसकी श्रायु का शीघ्र क्षय हो जाता है ।
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