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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने उपदेश दिया जो अचार्यों को गुरु परम्परा से प्राप्त हुआ और उनके द्वारा लिपिबद्ध किया गया है। जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी होते नहीं ( नान्यथावादिनो जिनाः) इसलिये जिनेन्द्र भगवान् ने उपदेश दिया उसी प्रकार ज्ञान के द्वारा जाना है। अतः केवलज्ञानानुसार अकाल मरण है।
-जं.ग. 16-2-78/VI/ शास्व सभा, जनपुरी
अकालमरण का काल नियत नहीं शंका-सर्वज्ञ के ज्ञान की अपेक्षा अकाल मृत्यु न मानने में तथा द्रव्यदृष्टि से स्वकाल में ही प्रतिसमय परिणमन होने से अकाल मृत्यु न मानने में क्या दोष है ?
समाधान-अन्य जीव पदार्थ को किस रूप जानता है यह हम नहीं जानते । वह जीव पदार्थ के विषय में जो कहता है उसको हम जान सकते हैं। इसी प्रकार केवलज्ञानी ने जो कहा है उसको तो हम जान सकते हैं। केवलज्ञानी ने स्वयं अकालमृत्यु का कथन किया है और उसके आधार पर श्री कुंदकुद आचार्य ने भी भावप्राभृत २५ में कहा है।
आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामी ने श्लोकवार्तिक अ० २ सूत्र ५३ को टीका में कहा है
(भाग ५ पृ० २६१.६२ पर) "न ह्यप्राप्तकालस्य मरणाभावः खङ्गप्रहारादिभिर्मरणस्य दर्शनात् । प्राप्तकालस्यैव तस्य तथा दर्शन मिति चेतु कः पुनरसौ कालं प्राप्तोऽमृत्युकालं वा ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, द्वितीयपक्षे खङ्गाप्रहारादिनिरपेक्षत्वप्रसंगः । सकल बहिः कारणविशेषनिरपेक्षस्य मृत्युकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थितेः। शस्त्रसंघातादि बहिरंगकारणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनस्तस्यापमृत्युकालत्वोपपत्तेः ।"
अर्थ-जिनका मरणकाल प्राप्त नहीं हुआ उनके मरण का प्रभाव है अर्थात् जिनका मरण-काल नहीं आया उनका मरण नहीं हो सकता, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि खङ्गप्रहार आदि के द्वारा, मरणकाल प्राप्त न होने पर भी मरण प्रत्यक्ष देखा जाता है। यदि यह कहा जाय कि जिसका मरणकाल आ गया है, उसही का मरण देखा जाता है तो यह प्रश्न होता है कि जिसको प्रायु पूर्ण हो गई अर्थात् जिसके प्रायकर्म की स्थिति पूर्ण हो गई उसके मरणकाल से प्रयोजन है या अपमृत्युकाल अर्थात् जिसके प्रायकर्म की स्थिति पूर्ण नहीं हुई है उसके मरण काल से प्रयोजन है ? यदि यह कहा जाय कि जिसके आयुकर्म की स्थिति पूर्ण हो गई उसके मरणकाल से प्रयोजन है तो सिद्धसाध्यता का दोष आता है, क्योंकि आयुपूर्ण होने पर काल मरण होता है, यह तो इष्ट है, इसके सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। यदि यह कहा जाय कि जिसकी आयुस्थिति पूर्ण नहीं हुई उसके मरणकाल से प्रयोजन है तो खङ्गप्रहार आदि की निरपेक्षता का प्रसंग आ जायगा। जिसका मृत्यु कारण सम्पूर्ण विशेष बाह्य कारणों से निरपेक्ष है उसका मृत्युकाल व्यवस्थित है अर्थात् निश्चित है। शस्त्रप्रहार आदि का अपमृत्य के साथ अन्वय व्यतिरेक का विधान होने से अपमृत्युकाल उत्पन्न होता है ।
लोकवातिक के इस प्रमाण में "व्यवस्थिते." और "उपपत्तेः" ये दोनों शब्द विशेष ध्यान देने योग्य हैं। काल-मरण में मरण का समय व्यवस्थित अर्थात् निश्चित होता है, किंतु अकालमरण में बाह्य विशेष कारणों से मरणकाल उत्पन्न होता है। यदि बाह्य विशेष कारण न मिलें या मिलने पर उनका प्रतिकार कर दिया जाय तो मरलकाल उत्पन्न नहीं होगा। इसी बात को श्री विद्यानन्दाचार्य ने श्लोकवार्तिक में इसप्रकार कहा है
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