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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ५५१ समाधान-केवली समुद्घात के समय अपर्याप्त अवस्था में यद्यपि मूल शरीर के साथ सम्बन्ध छूट जाता है तथापि कार्माणशरीर के साथ तो सम्बन्ध बना ही रहता है। जिस प्रकार सामान्य संसारी जीवों के विग्रह गति में औदारिक आदि तीन शरीरों से सम्बन्ध नहीं रहता तथापि कार्माण शरीर के साथ सम्बन्ध रहने के कारण कार्माण कापयोग होता है और कायबल प्राण भी होता है, शरीर को ग्रहण कर लेने पर अपर्याप्त अवस्था में मिश्र काययोग होने के कारण कायबल प्राण भी होता है। इसी प्रकार केवली समुद्घात में अपर्याप्त अवस्था के समय कार्मारण काययोग अथवा मिश्र काय योग होने के कारण कायबल प्रारण होता है। यदि कायबल प्राण केवली समुद्घात के समय न माना जावे तो तेरहवें गुणस्थान में भी समुद्घात के समय अयोग होजाने का प्रसंग आ जायगा जो आगम विरुद्ध है, क्योंकि तेरहवें गुणस्थान में केवली सयोग होते हैं। दण्ड समुद्घात काल में पर्याप्तता का हेतु शंका-केवली को दण्ड समुद्घात के समय पर्याप्तक कहा है, सो वह किस प्रकार है ? समाधान-जिस प्रकार अन्य छह समुद्घातों के समय आत्मा के प्रदेश असंख्यात बहु भाग मूल शरीर में रहने के कारण जीव को अपर्याप्तक नहीं कहा है, उसी प्रकार दण्ड समुद्घात के समय केवली के असंख्यात बहभाग आत्मप्रदेश शरीर में रहने से केवली को पर्याप्तक कहा है। धवल आदि सिद्धान्त ग्रन्थों में दण्ड समुद्घात के समय केवली को पर्याप्तक कहा है और आगम तर्क का विषय है नहीं। (ध. पु. १ पृ० २११, पु० १४ पृ० १) अतः पागम प्रमाण के आधार पर, दण्ड समुद्घात के समय केवली को पर्याप्तक स्वीकार कर लेना चाहिये। -जं. ग. 2-1-64/.../ प्रकाशचन्द केवली समुद्घात में सर्व प्रदेश शरीर से बाहर नहीं निकलते हैं शंका-केवली जो समुद्घात करते हैं तो उनके प्रदेश बाहर निकलते हैं; सो यह कैसे समझाया जावे । क्या जीव के कुछ प्रदेश बाहर निकलते हैं और कुछ भीतर रहते हैं ? समाधान-जीव के प्रदेश लोकाकाश के बराबर होते हैं । जब जीव केवली समुद्घात करता है तब प्रथम समय में ऊपर और नीचे प्रदेश दण्डाकार निकल कर जाते हैं। दूसरे समय में दाईं और बाईं ओर फैलकर कपाट का आकार धारण करते हैं। तीसरे समय में वे कपाट का आकार छोड़कर चारों ओर फैल जाते हैं और चौथे समय में लोक के एक-एक प्रदेश पर एक-एक आत्मप्रदेश स्थित हो जाता है। इस समय उतने ही प्रात्मप्रदेश शरीर के भीतर रहते हैं जितने आकाश प्रदेशों में शरीर स्थित है। इसके बाद पांचवें समय में पुनः प्रतररूप, छठे समय में कपाटरूप, सातवें समय में दण्डरूप होकर आठवें समय में सबके सब शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। यह केवली समुदधात की प्रक्रिया है। इससे स्पष्ट है कि समुद्घात के समय कुछ प्रदेश शरीर से बाहर रहते हैं और कुछ शरीर में रहते हैं। समुद्घात भी इसी का नाम है। -जे.सं.6-12-56/VI/ ल.च. धरमपुरी १. "विग्रहगो कर्मयोगः ।" [ मोक्षशास्त्र अध्याय 2 सूत्र २५) 2. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १४१ संस्कृत टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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