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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो यणियदयो तेसि । अरहंताणं काले मायाचारोव्व इत्थीणं ॥ ४४ ।।
अर्थात्-उन अरहंतों के अरहंत अवस्था में स्थान, आसन और विहारादि काययोग की क्रिया तथा धर्मोपदेश वचन योग की क्रिया, बिना इच्छा के स्वभाव से होती है, जैसे स्त्रियों के स्वभाव से कुटिल आचरण होता है।
-जे. ग. 8-2-68/IX/ध. ला. सेठी, खुरई केवली समुद्घात के समय शरीर से सम्बन्ध
शंका-केवली समुद्घात के समय शरीर से आत्मप्रदेश क्या पूर्णतया निकल जाते हैं ? क्या अन्य समुद. घातों में भी आत्मप्रदेश पूर्णतः बाहर हो जाते हैं ? यदि केवलीसमुद्घात के समय पूर्ण आत्मप्रदेश निकल जाते हैं तो मूल शरीर में आत्मप्रदेश किस प्रकार रहते हैं ?
समाधान-केवलीसमुद्घात के दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण ये चार भाग होते हैं। प्रथम समय में दण्डाकार, दूसरे समय में कपाटाकार, तीसरे समय में प्रतर रूप और चौथे समय लोक पूरण प्रात्मप्रदेश फैल जाते हैं। चौथे समय लोक पूरण अवस्था में लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर केवली का एक-एक प्रात्म-प्रदेश होता है क्योंकि प्रत्येक जीव के प्रदेशों की संख्या और लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या समान है। अतः लोकपूरण अवस्था में केवली के समस्त आत्मप्रदेश शरीर से बाहर निकल कर सर्व लोकाकाश में फैल जाते हैं। उस समय मूल शरीर से सम्बन्ध नहीं रहता है कहा भी है-“कपाट समुद्घात के समय चौदह राजु आयाम ( लम्बाई ) से और सात राजु विस्तार से अथवा चौदह राजु अायाम से और एक राजु को आदि लेकर बढ़े हुए विस्तार से व्याप्त जीव के प्रदेशों का संख्यात अंगुल की अवगाहनावाले पूर्व शरीर के साथ सबन्ध नहीं हो सकता है।"
(धवल पु० २ पृ० ६६०) अन्य समुद्घातों के अर्थात् वेदना कषाय आदि छह समुद्घातों के समय मूल शरीर से पूर्ण आत्मप्रदेश बाहर नहीं निकलते, क्योंकि उन छह समुद्घातों में लोकपूरण अवस्था का अभाव है।
यद्यपि केवलीसमुद्घात में समस्त आत्मप्रदेश मूल शरीर से बाहर निकलकर सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल जाते हैं तथापि वह मूल शरीर लोकाकाश के जितने प्रदेशों में स्थित है, उतने प्रात्मप्रदेश उस शरीर के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप होने के कारण उस शरीर में शरीर की अवगाहना प्रमाण आत्म-प्रदेश रहते हैं।
कायबल प्राण का हेतु
शंका-केवली समुद्घात के समय कायवल और आयु ये वो प्राण कहे गये हैं। जबकि वह अपर्याप्त अवस्था है और मूल शरीर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं तो फिर कायबल प्राण किस अपेक्षा बनता है ?
१. नवीन संस्करण धवल 2/६१ तथा ऐसा ही कथन धवल १/१५५ ( नवीन संस्करण ) में भी आया है। परन्त यहां इतना अवश्य ध्यान रहे कि मल औदारिक शरीर आत्म-प्रदेशों से सर्वथा रिक्त नहीं हो जाता। सारतः सकल आत्मप्रदेशकशरीर से बाहर नहीं होते। -सं0
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