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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
के लिये और संयम की रक्षा करने के लिये उत्पन्न होता है। (स.सि. २/४९)। जो दीप्ति का कारण है या तेज में उत्पन्न होता है वह तैजसशरीर है ( स. सि. २/३६ ) तेजसशरीर का सब संसारी जीवों के साथ अनादिकाल से संबंध है ( स. सि. २/४१-४२) प्राहारकशरीर की वर्गणासे तैजस शरीर की वर्गणा सूक्ष्म है। ( स. सि. २/३७)। माहारकशरीर से तेजसशरीर के प्रदेश अनन्तगुणे हैं ( स. सि. २/३९ )। इस प्रकार पाहारकशरीर व तैजसशरीर में अंतर है।
-जं. ग. 8-1-70/VII/ रो. ला. मित्तल विग्रहगति में तैजसशरीर नामकर्म का कार्य
शंका-रा.वा. अ०२ सत्र ४९ वा०८ में लिखा है-"औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीर की दीप्ति का कारण तेजसशरीर है ।" कार्मणशरीर को दीप्ति का कारण न होने से विग्रहगति में तैजसशरीर नाम कर्मोदय क्या कार्य करता है ?
समाधान-विग्रहगति में प्रतिसमय जो तैजस वर्गणा आती है उनको तैजस शरीररूप परिणमन करना तेजसशरीर नाम कर्म का कार्य है। कहा भी है-'यदुवयादात्मनः शरीरनिवृत्तिस्तच्छरीरनाम'-रा. वा. ८/२२/३ जिसके उदय से शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है।
जिस कर्म के उदय से तैजसवर्गणा के स्कन्ध निस्सरण अनिस्सरणात्मक और प्रशस्त अप्रशस्तात्मक तैजसशरीर के रूप से परिणत होते हैं वह तैजसशरीर नामकर्म है। -धवल पु०६पृ०६९ सूत्र ३१ टीका)
-पवाचार/ज. ला. जन भीण्डर
तेजसशरीर निरुपभोग है
शंका-मोक्षशास्त्र अध्याय २ सूत्र ४४ में कार्मण शरीर को उपभोग रहित बतलाया है किन्तु तेजस शरीर को निरुपभोग क्यों नहीं बतलाया ? क्या तेजस शरीर का उपभोग होता है ? यदि होता है तो कैसे?
समाधान-मोक्ष शास्त्र अध्याय २ सूत्र ४४ 'निरुपभोगमन्त्यम् ।' अर्थात् अन्तिम शरीर ( कार्मण शरीर) के द्वारा शब्दादिक का ग्रहण रूप उपभोग नहीं पाया जाता है। विग्रह गति में भावेन्द्रियाँ लब्धि रूप रहती हैं. किन्तु द्रव्येन्द्रियों के अभाव में शब्दादिक का उपभोग नहीं होता है । तैजस शरीर भी निरुपभोग है किन्तु उसके द्वारा कर्मास्रव या योग नहीं होता है। श्री अमितगति आचार्य ने भी पंचसंग्रह पृ०६३ में कहा है
तेजसेन शरीरेण बध्यते न न जीर्यते । नचोपभुज्यते किचिद्यतो योगोऽस्य नास्त्यतः॥१७॥
तेजस शरीर के द्वारा न कर्म बंधते हैं और न निर्जरा होती है । तेजस शरीर के द्वारा किंचित् भी उपभोग नहीं होता है इसलिये तैजस योग भी नहीं होता है।
-जें. ग. 2-3-72/VI/क. च. जेंन
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