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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
१५ प्रकार के शरीर बन्ध शंका-गो० क० गाथा २७ में १५ प्रकार के शरीरों का कथन है सो उनका क्या कार्य है ?
समाधान-गो. क. गाथा २७ में शरीरबन्ध का कथन है, जिसका सविस्तार कथन धवल पु. १४ में है।
"ओरालिय-ओरालियसरीर बंधो ॥४५॥ ओरालिय तेयासरीर बंधो ॥४६॥ ओरालिय-कम्मइय सरीर बंधो ॥४७॥ ओरालिय-तेया-कम्मइयसरीर बंधो ॥४८॥ वेउविय-वेउब्वियसरीर बंधो ॥४९॥ वेउव्यिय-तेयासरीर बंधो ॥५०॥ वेउस्विय-कम्मइयसरीर बंधो ॥५१॥ वेउध्विय-तेया कम्मइयसरीर बंधो ॥५२॥ आहार-आहारसरीर बंधो॥५३॥ आहार तेयासरीरबंधो ॥५४॥ आहार-कम्मइयसरीर बंधो ॥५५॥ आहारक-तैजस कम्मइयसरीर बंधो ॥५६॥ तेया-तेयासरीर बंधो ॥५७॥ तेया-कम्मइयसरीर बंधो॥५८॥ कम्मइय-कम्मइयसरीरबंधो ॥५९॥ सो सम्वोसरीर बंधोणाम ॥६॥
अर्थ-प्रौदारिक-औदारिक शरीर बंध ॥४५॥ प्रौदारिक-तैजस शरीर बंध ॥४६॥ औदारिक-कार्मण शरीर बंध ॥४७॥ औदारिक तैजस-कार्मण शरीर बंध ॥४८॥ वैक्रियिक-वैक्रियिक शरीर बंध ॥४६॥ वैक्रियिक-तेजस शरीर बंध ॥५०॥ वैक्रियिक-कार्मण शरीर बंध ॥५१।। वैक्रियिक-तैजस कार्मण शरीर बंध ॥५२।। आहारक-आहारक शरीर बंध ॥५३॥ माहारक-तैजस शरीर बंध ॥५४।। प्राहारक-कार्मण शरीर बंध ।।५।। आहारकतैजस-कार्मण शरीर बंध ॥५६॥ तेजस-तैजस शरीर बंध ।।५७।। तैजस-कार्मण शरीर बंध ॥५८|| कार्मण-कार्मण शरीर बंध ।५। यह सब शरीर बंध हैं ॥६॥
"एसो पण्णारसविहो बंधो, सरीर बंधो त्ति घेतम्वो ॥"
यह १५ प्रकार का बंध शरीरबंध है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इसी को गो. क. गाथा में "चदु चदु चदु एक्कं च पयडीओ" शब्दों द्वारा कहा गया है । अर्थात् औदारिक के चार, वैक्रियिक के चार, आहारक के चार, जस के दो. कार्मण का एक इस प्रकार १५ शरीर बंध का कथन सूत्र ४५ से ५९ तक में किया गया है।
-जं. ग. 2-1-75/VIII/ के. जी. शाह 'प्रौदारिक शरीर तो जगत में असंख्यात ही हैं, पर जीव अनन्त हैं
शंका-औदारिकशरीर असंख्यात बतलाये थे, किन्तु चौबीस ठाने में अनन्तानंत लिखे हैं। जीव भी अनन्तानन्त हैं अतः औदारिक शरीर भी अनन्तानन्त होने चाहिये। फिर असंख्यात किस प्रकार हैं?
समाधान-जीव अनन्तानन्त हैं यह बात सत्य है, किन्तु असंख्यात जीवों के अतिरिक्त अनन्तानन्त जीव साधारण अर्थात् निगोदिया हैं । अनन्तानन्त निगोदिया जीवों का एक औदारिक शरीर होता है। कहा भी है
"एगणिगोदसरीरे जीवा दवप्पमाणदो दिद्वा। सिद्ध हिं अणंतगुणा सम्वेण वितीदकालेण ॥१९५।। ( कर्मकांड )
अर्थ-द्रव्य की अपेक्षा सिद्धराशि से और सम्पूर्ण अतीतकाल के समयों से अनन्तगूणे जीव एक निगोदशरीर में रहते हैं। अतः जीवों की संख्या अनन्तानन्त होते हुए भी औदारिकशरीरों की संख्या असंख्यातलोकप्रमाण है। गो. जी. गाथा १९३, त० रा० अ०२, सूत्र ४९ )। चौबीस ठाना मेरे पास नहीं है, किन्तु चौबीस ठाना
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