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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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शिक्षा व आलाप आदि भावमन का कार्य है। उस भावमन की उत्पत्ति में द्रव्यमन उपकारक है। द्रव्यमन के बिना भावमन की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
"संज्ञिनो शिक्षालापग्रहणादिलक्षणाक्रिया भवति ।" ( २/२४ तत्त्वार्थवृत्ति )
संज्ञियों के अर्थात् मनसहित जीवों के शिक्षा, शब्दार्थ ग्रहण आदि क्रिया होती हैं, क्योंकि मनका कार्य शिक्षा के शब्दार्थ को ग्रहण करना है।
–णे. ग. 8-1-70/VII/ रो. ला मित्तल कार्माण वर्गणा में उपलभ्यमान गुण
शंका-पुद्गल के कर्म होने योग्य परमाणु में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण के २० गुणों में से कौन-कौन गुण पाये जाते हैं ? भरतेशवैभव के चतुर्थ खण्ड में स्पर्श के स्निग्ध व रूक्ष दो गुण लिखे हैं, किन्तु शेष रस गन्ध वर्ण में कौनसा गुण है ? सो नहीं लिखा।
समाधान-कर्म रूप होने योग्य कार्माणवर्गणा कर्कश ( कठोर ), मृदू, स्निग्ध रूक्ष ये चार स्पर्शवाली, पांच रस, दो गन्ध और पांच वर्णवाली होती हैं। किन्तु ईर्यापथ प्रास्रव द्वारा जो कर्म स्कन्ध आते हैं वे मृदु व रूक्ष स्पर्शवाले, अच्छी गन्धवाले, अच्छी कान्तिवाले, हंस के समान धवलवर्णवाले और शक्कर से भी अधिक माधुर्य युक्त होते हैं । (षट्खण्डागम पृ० १३, पृ० ४८-५०)
-जं. सं. 17-10-57/ | ज्यो. प्र. सुरसिनेवाले
कार्माणवर्गणा के प्रकार शंका-कार्माणवर्गणा सिर्फ एक ही प्रकार की है या मूल में ही आठ प्रकार की हैं ? प्रमाण सहित लिखें।
समाधान-धवल पु० १४ पृ० ५५३ सूत्र पर लिखा है-"ज्ञानावरणीय के योग्य जो द्रव्य हैं, वे ही मिथ्यात्व प्रादि प्रत्ययों के कारण पांच ज्ञानावरणीयरूप से परिणमन करते हैं, अन्यरूप से वे परिणमन नहीं करते, क्योंकि वे अन्य के अयोग्य होते हैं। इसीप्रकार सब कर्मों के विषय में कहना चाहिये, अन्यथा ज्ञानावरणीय का जो द्रव्य है उन्हें ग्रहण कर मिथ्यात्वादि प्रत्ययवश ज्ञानावरणीयरूप से जीव परिणमन करते हैं", यह सूत्र नहीं बन सकता है। यदि ऐसा है तो कार्मणवर्गणाएँ आठ हैं ऐसा कथन क्यों नहीं किया है ? इसका समाधान- नहीं, क्योंकि अन्तर का अभाव होने से उस प्रकार का उपदेश नहीं पाया जाता है। ये पाठ ही वर्गणाएं क्या पृथक्-पृथक् रहती हैं या मिश्रित होकर रहती हैं ? इसका समाधान यह है कि पृथक्-पृथक् नहीं रहती, मिश्रित होकर रहती हैं । यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? "आयुकर्म का भाग स्तोक है, नामकर्म और गोत्रकर्म का भाग उससे अधिक है", इस गाथा से जाना जाता है।
कम्म ण होदि एवं अरोयविहमेय बंध समकाले ।
मलत्तरपयडीणं परिणामवसेण जीवाणं ॥१७॥ (ध. पु. १५ पृ. ३२ ) अर्थ-कर्म एक नहीं है, यह जीव के परिणामानुसार मूल व उत्तर प्रकृतियों के बंध के समानकाल में ही अनेक प्रकार का है ।।१७॥ जीव परिणामों के भेद से और परिणमायी जाने वाली कार्मणवर्गणाओं के भेद से बंध के समान काल में ही कर्म अनेक प्रकार का होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। (ध. पु. १५ पृ. ३२)
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