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भाषावरणा लोक में सर्वत्र है, तथापि शब्दपरिणमन सर्वत्र क्यों नहीं है ?
शंका-क्या भाषा वर्गणा लोक में सर्वत्र भरी हुई है ? यदि ऐसा है तो शब्द क्यों सुनाई नहीं देते हैं ।
समाधान - भाषावगंरणा लोक में सर्वत्र भरी हुई है, किन्तु जहाँ पर बहिरंग कारण मिलते हैं वहाँ पर ही शब्द रूप परिणम जाती है। श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने कहा भी है
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
"स्वभावनिर्वृ ताभिरेवानंतपरमाणुमयीभिः शब्दयोग्यवर्गणाभिरन्योन्यमनुप्रविश्य समंततोऽभिव्याप्य पूरितेऽपि सकले लोके यत्र यत्र बहिरङ्गकारणसामग्री समुदेति तत्र तत्र ताः शब्दत्वेन स्वयं व्यपरिणमंते ।"
( पं० का० गा० ७९ टीका )
शब्द योग्य वर्गरणाओं से समस्त लोक भरपूर होने पर भी जहाँ-जहाँ बहिरंग कारण सामग्री मिलती है। वहाँ-वहाँ पर वे शब्द वर्गरणाएँ शब्दरूप परिणमन कर जाती हैं ।
श्री जयसेन आचार्य ने भी इसी गाथा ७९ की टीका में कहा है
"द्विविधाः स्कंधा भवन्ति भाषावर्गणायोग्या ये तेऽभ्यंतरकारणभूताः सूक्ष्मास्ते च निरंतरं लोके तिष्ठन्ति ये तु बहिरंगकारणभूता स्तात्वोष्टपुटव्यापारघंटाभिघातमेघादयस्ते स्थूलाः क्वापि क्वापि तिष्ठन्ति न सर्वत्र यत्रेयमुभयसामग्री समुदिता तत्र भाषावर्गणाः शब्दरूपेण परिणमन्ति न सर्वत्र ।”
अर्थ – शब्दरूप पर्याय उत्पन्न होने में दो प्रकार के पुद्गलस्कंध कारण होते हैं । एक तो भाषा वर्गणा योग्य स्कंध जो शब्द का अभ्यंतरकारण है वे भाषावर्गणा सूक्ष्म हैं तथा लोक में सर्वत्र निरंतर तिष्ठ रहे हैं । दूसरा बहिरंगकारणरूप स्कंध जो ओष्ट आदि का व्यापार, घंटा आदि का हिलना व मेघादिक का संयोग, ये स्थूल स्कंध हैं । ये स्कंध लोक में कहीं-कहीं हैं, सर्वत्र नहीं हैं । जहाँ अंतरंग और बहिरंग दोनों कारणसामग्री का मेल होता है वहाँ पर ही भाषावगंणा शब्दरूप परिणम जाती है, सर्वत्र नहीं परिणमती, क्योंकि बहिरंगकारण सर्वत्र नहीं है ।
—जै. ग. 7-11-68 / XIV / रो. ला. मित्तल
मनोवर्गणा द्रव्यमन का स्वरूप व कार्य.
शंका- मनोवगंणा से जो द्रव्य मन बनता उसका क्या स्वरूप है अथवा उसका क्या कार्य है ?
समाधान - श्लोकवार्तिक अ० ५ सूत्र १९ की टीका में भी पं० माणकचन्दजी ने लिखा है - " हृदय में
आठ पाँखुरी वाले कमल समान बन रहा द्रव्यमन मनोवर्गणा नामक पुगलों से निर्मित है ।" ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांगनामकर्म के निमित्त से जो पुद्गल गुण-दोष का विचार और स्मरण आदि उपयोग के सन्मुख हुए श्रात्मा के उपकारक हैं वे पुद्गल ही द्रव्यमनरूप से परिणत होते हैं अतः ब्रव्यमन पौद्गलिक है ।
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" द्रव्यमनश्च ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभप्रत्यया गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकाः पुद्गला मनस्त्वेन परिणता इति पौद्गलिकम् ।" ( स०सि० ५ / १९ )
इसका अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है ।
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