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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
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कम्माणां द्विविक्खएण जो विवागो सो कम्मोदयोति भण्णदे। अर्थ-प्रपक्वपाचन के बिना यथाकालजनित कर्मों के विपाक को कर्मोदय कहते हैं । इससे यह भी ध्वनित होता है कि अपक्वपाचन सहित कर्मों के विपाक को उदीरणा कहते हैं।
-जं. सं. 21-2-57/VI/जु. म. दा. टूण्डला
निधत्ती का स्वरूप शंका-निधत्तीकर्म का क्या स्वरूप है ? समाधान-धवल पु. १६ पृ. ५१६ पर निधत्ती का स्वरूप इसप्रकार कहा है
"जं पदेसगं णिधत्तीकयं उदए वाणो सक्क, अण्ण पयडि संकामिदु पिणो सक्क, ओकड्डिदुमुक्कडिवू च सक्कं, एवं विहस्स पदेसग्गस्स णिवत्तमिदि सण्णा।" ( धवल पु. १६ पृ. ५१६)
अर्थ-जो प्रदेशाग्र निधत्तीकृत हैं वे उदय में देने के लिये शक्य नहीं हैं, अन्य प्रकृति में संक्रांत करने के लिये भी शक्य नहीं हैं, किन्तु अपकर्षण व उत्कर्षण करने के लिये शक्य हैं, ऐसे प्रदेशाग्र की निधत्त संज्ञा है।
-जं. ग. 30-12-71/VII/ रो. ला. मित्तल
गुणश्रेणीनिर्जरा का स्वरूप शंका-गुणश्रेणोनिर्जरा का स्वरूप क्या है ?
समाधान-उदयावली के बाहर प्रथम निषेक में जो अपकृष्टद्रव्य दिया जाता है उससे असंख्यातगुणा दव्य दसरे निषेक में दिया जाता है। उससे भी असंख्यातगुणा द्रव्य तीसरे निषेक में दिया जाता है इसप्रकार यह क्रम गुणश्रेणीआयाम के अन्तिमसमय तक जानना चाहिये। श्री वीरसेन आचार्य ने धवल पु०६ में निम्न प्रकार कहा है
"उदयावलिय बाहिरदिदिम्हि असंखेज्जसमयपबद्ध देदि । तदो उवरिभट्टिदीए सेडीए ऐदव्वे जाव गुणसेडी चरिमसमओ त्ति । तवियद्विदीए तत्तो असंखेज्जगुरणे देदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए णेदव्वं जाव गुणसेडी चरिम समओ त्ति।" (धवल पु० ६ पृ० २२५)
उदयावली के बाहर की स्थिति में असंख्यात समयप्रबद्धों को देता है। इससे ऊपर की स्थिति में उससे भी असंख्यातगुणित समयप्रबद्धों को देता है। तृतीय स्थिति में उससे भी असंख्यात गुणित समयप्रबद्धों को देता है। इसप्रकार यह क्रम असंख्यातगुरिगतश्रेणी के द्वारा गुणश्रेणी के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये।
उक्कट्टिदम्हि देदि हु, असंखसमयप्पबंधमादिम्हि । संखातीदगुणक्कममसंखहीणं, बिसेस होण कमं ॥७३॥ ( लब्धिसार )
-0. ग. 2-3-72/VI/क. च. गैन
१. नोट -यह उदयावलि बाह्य गुणश्रेणी का स्वरूप है।
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