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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
२४ प्रकृतिक स्थितिविभक्ति का तियंचों में उत्कृष्ट काल
शंका- मोहनीयकर्म को २४ प्रकृतियों की विभक्ति का उत्कृष्ट काल तिर्यंचों में देशोन तीन पल्य कहा है, पूरे सीनपत्य क्यों नहीं कहा ? कोई बद्धायुष्क मनुष्य २४ प्रकृतिवाला सम्यग्दृष्टि होकर उत्तमभोगभूमिया तिर्यंचों में उत्पन्न होने पर पूर्ण तीन पल्यकाल क्यों नहीं पाया जाता ? अथवा देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पत्यकाल क्यों महीं पाया जाता, क्योंकि २४ प्रकृतिवाला तिथंच मरकर भोगभूमियाँतिर्यंच में उत्पन्न हो सकता है ?
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समाधान - क्षायिक सम्यग्दृष्टि या कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि पूर्व में बद्धायुष्क मनुष्य भोगभूमियाँ तियंचों में उत्पन्न हो सकता है ( ष० खं० पु० २, पृ. ४८१ ) कृतकृत्य वेदक के अतिरिक्त अन्य क्षयोपशमसम्यक्त्वी तियंच या मनुष्य मरण करके एकमात्र देवगति को ही प्राप्त होते हैं ( ष. खं. पु. ६ पृ. ४६४ सूत्र १३१ तथा पृ. ४७४-४७५ सूत्र १६४ ) । क्षायिकसम्यग्दृष्टि के मोहनीयकर्म की २१ प्रकृति की और कृतकृत्यवेदक के २२ प्रकृति की सत्ता होती है अतः २४ प्रकृति की सत्तावाला वेदकसम्यग्दृष्टि मरकर सम्यक्त्वसहित किसी भी तियंचगति में उत्पन्न नहीं हो सकता । उसके मरण से एक अंतर्मुहूर्तं पूर्वं सम्यक्त्व छूट कर मोहनीय की २८ प्रकृतियों की सत्ता हो जावेगी । जब २४ प्रकृति की सत्तावाला कोई भी जीव तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं हो सकता तो पूर्ण तीनपल्य या तीन पल्य से अधिक कालघटित नहीं हो सकता । मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति की सत्तावाला कोई मिथ्यादृष्टि-मनुष्य या तिथंच मरकर उत्कृष्ट भोगभूमियाँ-तियंचों में उत्पन्न हो वहाँ पर क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि हो, अनन्तानुबंध काय की विसंयोजना करनेवाले तियंच के कुछ कम तीनपल्य उत्कृष्टकाल होता है ।
- जै. सं. 31-7-58 / V / जि. कु. जैन, पानीपत
मिथ्यादृष्टि के जघन्य सत्त्व प्रकृतियाँ १४४ होती हैं
शंका- पंचसंग्रह पेज ७० 'मिथ्यात्व गुणस्थान में देवायु नरकायु तिर्यंचायु बिना १४५ प्रकृतियों का सत्त्व और ३ का असत्त्व रहता है।' यह कैसे सम्भव है ?
समाधान - जिसने पर भव सम्बन्धी आयु का बन्ध नहीं किया है ऐसे मिध्यादृष्टि मनुष्य के अथवा चरमशरीरी मिथ्यादष्टि के देवायु, नरकायु, तियंचायु के बिना १४४ प्रकृतियों का सत्त्व संभव है, क्योंकि ऐसे मनुष्य के मिथ्यात्वगुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का सत्त्व भी सम्भव नहीं है । १४५ के स्थान पर १४४ होना चाहिए ।
मोहनीय के विभिन्न सत्त्वस्थान एवं उनके स्वामी
शंका- मोहनीयकर्म के १५ सत्त्व स्थान बतलाये गये हैं । उसमें से दूसरा स्थान सस्यवत्वप्रकृति के अभाव से होता है और पांचवां स्थान मिथ्यात्व के अभाव से होता है । सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती है और मिथ्यात्व प्रकृति सबंधाती है । अतः दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का अभाव होना चाहिये था। दूसरे गुणस्थानवाला जीव क्या मिध्यादृष्टि है या सम्यग्दृष्टि ?
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- जै. ग. 27-8-64 / 1X / ध. ला. सेठी
समाधान - मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ हैं । श्रनादिमिध्यादृष्टि के २६ प्रकृतियों का सत्व होता है, किंतु सम्यक्त्व होने पर मिथ्यात्व के तीन टुकड़े होकर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का भी सत्त्व हो
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