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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
शक्ति है ताको व्यक्त न होने दे, इस अपेक्षा आवरण कहा है। जैसे देशचारित्र का अभाव होत शक्ति घातने की अपेक्षा अप्रत्याख्यानावरणकषाय कहा, तैसे जानना । बहुरि ऐसे जानो-वस्तु विर्षे जो परनिमित्ततै भाव होय, ताका नाम औपाधिकभाव है। सौ से जल के अग्नि का निमित्त तात उष्णपनी भयो तहाँ शीतलपना है। परन्तु अग्नि का निमित्त मिटें शीतलता ही होय जाय तातै सदाकाल जल का स्वभाव शीतल कहिए। जात ऐसी शक्ति सदा पाइए है बहुरि व्यक्त भए स्वभाव व्यक्त भया कहिए। कदाचित् व्यक्तरूप हो है। तैसे आत्मा के कर्म का निमित्त होते अन्यरूप भयो, तहाँ केवलज्ञान का अभाव ही है, परन्तु कर्म का निमित्त मिटें सर्वदा केवलज्ञान होय जाय । तातै सदाकाल प्रात्मा का स्वभाव केवलज्ञान कहिए है। जाते ऐसी शक्ति पाइए है। व्यक्त भए स्वभाव व्यक्त भया कहिए । बहुरि जैसे शीतलस्वभाव करि उष्णजल को शीतल मानि पानादि कर तो दाझना ही होय तैसे केवलज्ञानस्वभाब करि अशुद्ध भात्मा को केवलज्ञानी मानि अनुभवं तौ दुःखी ही होय। ऐसे जे केवलज्ञानादिकरूप प्रात्मा को अनुभव हैं, ते मिथ्याष्टि हैं।
-जें. सं. 24-1-57/VI/ रा. दा. कराना
सत्त्व
सातवें नरक को जघन्य प्रायु का प्रमाण
शंका-जैसे सर्वार्थसिद्धि में तैतीससागर से कम भायु नहीं होती तो क्या सातवें नरक में भी तैतीससागर से कम आयु नहीं होती?
समाधान-सातवेंनरक में जघन्यप्रायु एक समय अधिक बाईससागर होती है और उत्कृष्ट मायु तैतीस सागर होती है । (धवल पु. ७ पृ. ११८ सूत्र ८ व ९)। सातवेंनरक में सब नारकियों की प्रायु तैंतीससागर की हो, ऐसा नियम नहीं है। जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट तीनों प्रकार की प्रायु होती है, किन्तु सर्वार्थसिद्धि में सब देवों की आयु तैतीससागर होती है, ऐसा नियम है । ( धवल पु.७ पृ. १३५ सूत्र ३७-३८ )।
जै.ग. 15-1-68/VII/ .......
मनुष्य-तियंच में सभी स्थिति विभक्ति शंका-क्या सामान्य स्थिति में मनुष्य, तिथंच व बारहवें स्वर्ग तक के मिथ्यादृष्टि देव के अल्पतरस्थिति विभक्ति ही होती है या अन्य भी ?
उत्तर-तियंच, मनुष्य और भवनवासी से लेकर सहनारकल्प ( बारहवं स्वर्ग ) तक के देवों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्ति वाले जीव हैं। मात्र एक स्थिति विभक्ति वाले जीव नहीं हैं, किंतु तियंच, मनुष्य और बारहवें स्वर्ग तक के देवों में अल्पतर भुजगार और अवस्थित अर्थात तीनों विभक्ति वाले जीव हैं।
9. ग. 4-1-68/VII/ मां कु. बड़नात्या
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