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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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स्त्री के रूप देखने की अंतरंग में जिज्ञासा होने पर भी स्त्री की ओर अवश्य देखे, ऐसी बात नहीं है । देखे भी अथवा न भी देखे जैसी परिस्थिति हो । अंतरंग में जिज्ञासा होने पर भी यदि नहीं निहारता तो भी उसकी श्रात्मा विकारी तो अवश्य हो गई और उस विकार के कारण कर्मबंध भी अवश्य होगा । यह ही उस जिज्ञासा
का फल I
क्रोधादि होने पर दूसरों से लड़ना श्रावश्यक नहीं है । एकेन्द्रिय जीवों के क्रोध का उदय होने पर भी वे दूसरों से नहीं लड़ते ।
क्रोध कर्म के उदय के समय ही क्रोध भाव होते हैं
शंका
- जिस समय कर्म का उदय है क्या जीव उसी समय क्रोधरूप परिणमन करता
समय में ?
- जै. सं. 8-8 57 |
को कसाई माणकसाई मायाकसाई एइंदिय प्पहूडि जाव अणियट्टि ति ॥ ११२ ॥ लोभकसाई एइंदिप पहुडि जाव सुहुमसांपराइयसुद्धि संजदा ति ॥११३॥
समाधान - जिस समय क्रोध का उदय है उसी समय जीव क्रोधरूप परिणमता है । यदि ऐसा न माना जाय तो दसवें गुणस्थान के अन्तिमसमय में जो सूक्ष्मलोभ का उदय हुआ उसके निमित्त से ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों के प्रथम समय में सूक्ष्मलोभरूप जीव के परिणाम होने से ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव सकषाय और अकषाय दोनों रूप होगा । जिससे सर्वज्ञ वाक्यों में विरोध श्रा जायेगा ।
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अकसाई चबुसुट्टासु अस्थि उवसंत कसाय- वीयराय-छदुमत्था खीणकसाय वीयराय छनुमत्था सजोगिकेवली अजोगकेवल ति ॥ ११४ ॥ [ धवल प्रथम पुस्तक पृ० ३५१-३५२ ] ।
अथवा उत्तर
अर्थ - एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्ति गुणस्थान तक क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी जीव होते हैं ।। ११२ ।।
यदि यह कहा जाय कि दसवें गुरणस्थान के प्राप्त हो जाता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, ariभाव को प्राप्त नहीं होता है ।
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लोभकषाय से युक्त जीव एकेन्द्रिय से लेकर सूक्ष्मसांपरायशुद्धिसंयत ( दसवें ) गुणस्थान तक होते हैं ।। ११३।। कषायरहित जीव उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ, सयोगिकेवली और प्रयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं ।। ११४ ॥
“सकलकषाय। भावोऽकषायः ।" अर्थात् सम्पूर्णकषाय के अभाव को अकषाय कहते हैं। सूत्र ११४ को टीका में श्री वीरसेन आचार्य ने निम्न प्रकार कहा है ।
"यद्यपि उपशांतकषाय गुणस्थान में अनन्त द्रव्यकषाय का सद्भाव है तथापि कषाय के उदय के अभाव की अपेक्षा उसमें कषायरहितपना बन जाता है ।"
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अन्तिम समय का सूक्ष्म लोभकर्म बिना फल दिये निर्जरा को क्योंकि कोई भी कर्म स्वरूप से या पररूप से फल बिना दिये
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