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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थात-विनाश स्वभाव में अन्य अनपेक्षत्वरूप जो हेतु कहा है, वह असिद्ध है, क्योंकि घट प्रादि के प्रभाव का मुद्गर प्रादि के व्यापार के साथ अन्वय-व्यतिरेकपना पाया जाने से विनाश के प्रति मुद्गरादि के व्यापार को कारणता बन जाती है। अर्थात् मुद्गरादि के प्रहार द्वारा घटादि का विनाश देखा जाता है और मुद्गरादि के प्रहार के अभाव में घटादि का विनाश नहीं देखा जाता है. अतः यह सिद्ध होता है कि घटादि के विनाश में मदगरादि के प्रहार का कारणपना है। यदि कहा जाय कि मुद्गरादि का प्रहार तो कपाल आदि की उत्पत्ति में कारण है. घट के अभाव में कारण नहीं। ऐसा कहनेवालों को जैनों का कहना है कि कपाल मादि अन्य पर्याय का होना ही घटादि का प्रभाव कहलाता है।
श्री माणिक्यनन्दि आचार्य ने भी परीक्षामुख सूत्र में कहा है"परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात् ॥ ६६४ ॥"
अर्थ-दूसरे सहकारी कारणों की अपेक्षा रखने पर पदार्थों के परिणामीपना प्राप्त होता है, अन्यथा कर्म नहीं हो सकता है।
इन आर्षवाक्यों से सिद्ध है कि द्रव्यका परिणमन अथवा उत्पाद-व्यय दूसरे सहकारी कारणों की अपेक्षा रखता है और दूसरे सहकारी कारणों के बिना द्रव्यका परिणमन प्रथवा उत्पादव्यय नहीं हो सकता। अतः पर्यायाथिकनय की अपेक्षा द्रव्य परतन्त्र ( पराधीन ) है।
द्रव्याथिकनय से द्रष्य नित्य है, न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है प्रतः द्रव्याथिकनय की अपेक्षा स्वतंत्र ( स्वाधीन ) है।
इसप्रकार द्रव्य स्वतन्त्र भी है और परतंत्र भी है। जो द्रव्य को सर्वथा स्वतंत्र मानते हैं उनके मत में बंध तथा मोक्ष दोनों सिद्ध नहीं होने से मोक्षमार्ग का उपदेश व्यर्थ हो जाता है।
जैनधर्म का मूल सिद्धांत अनेकान्त है, क्योंकि वस्तुस्वरूप अनेकान्तमयी है। जिसने अनेकांत को यथार्थ समझ कर निग्रंथ अवस्था अर्थात् रत्नत्रय धारण कर लिया है उन्हीं का उपदेश प्रामाणिक है।
-ने.ग. 18-4-66/IX/ञानधन्द M.Sc.
मोहोदय में फल अवश्य मिलता है। पर बाह्य सामग्री की प्राप्ति विषयक कोई नियम नहीं
शंका-मोहोदय का कार्य जीव के परिणामों में विकार उत्पन्न करना है या उस समय उपलब्ध परपदार्थों में प्रवृत्त कराना भी है। क्या स्त्री का रूप देखने की जिज्ञासा अन्तर में उत्पन्न होने पर यह आवश्यक है कि अवश्य ही स्त्री की ओर निहारने लगे। यदि ऐसी जिज्ञासा होने पर भी निहारता नहीं तो उसका क्या फल है ? इसी प्रकार क्रोधादि होने पर क्या दूसरों से लड़ना आवश्यक है?
समाधान-मोहोदय का कार्य जीव के परिणामों में विकार उत्पन्न कराना है। क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलद्रव्य का आश्रय लेकर कर्म उदय में आता है ( क. पा० सुत्त पृष्ठ ४६५ )। विकार भी वस्तु का अवलम्बन कर होता है ( वत्थु पहुच्च जं पुण अज्सवसाणं तुहोइ जीवाणं । समयसार गाथा २६५) जीव के परिणामों में विकार होने में बाह्य वस्तु भी कारण होती है, किन्तु उस बाह्यवस्तु अर्थात् परपदार्थ में प्रवृत्ति करना या न करना अन्य अनेक कारणों पर निर्भर है। जैसे तीव्र या मन्द उदय, वीर्य की हीनाधिकता मादि।
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