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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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दिशा में जन्म लेने वाले जीव के ऋजुगति कही है और ऋजुगति में अनाहारक होता नहीं है अतः इस प्रकार भी आगम से विरोध पाता है। जो एकेन्द्रिय जीव सातवें नरक से नीचे असनाड़ी से बाहर एक तरफ मरा है और उसको मध्यलोक से साढ़े तीन राजू ऊपर जाकर असनाड़ी के बाहर दूसरी तरफ उत्पन्न होना है, उस एकेन्द्रिय जीव को तीन मोड़े लेने पड़ते हैं।
-जं. सं. 2-8-56/VI/ दी. घ. जे. देहरादून
विग्रहगति में भी निरन्तर गतिबन्ध शंका-विग्रहगति में क्या जीव अपने परिणामों द्वारा गति का बंध कर सकता है ?
समाधान-विग्रहगति में कार्माणकाययोग होता है। कहा भी है 'विग्रहगतौ कर्मयोगः' (मो. शा. अ. २ सूत्र २५)। कार्माणकाय योग में संसारी जीव के नरकादि चार गतियों में से किसी न किसी गति का बंध अवश्य होता है, किन्तु आयु का बंध नहीं होता ( गो. क. गाथा ११९)।
-जं. ग. 31-10-63/IX/ क्षु. आदिसागर
विग्रहगति में कार्य शंका-स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा १८५ को संस्कृत टीका का भाव क्या है अर्थात् क्या विप्रहगति में भी जीव कृषि, वाणिज्य मादि कर सकता है या उनके करने का विचार कर सकता है, क्या ?
समाधान-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा १८५ की संस्कृत टीका में 'घट, पट, कृषि, वाणिज्य आदि कार्य तथा ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मों को करता है। ऐसा कहा है। विग्रहगति में जीव के औदारिक या वैक्रियिकशरीर नहीं होता; प्रतः विग्रहगति में घट, पट, कृषि, वाणिज्य आदि कार्य तो नहीं कर सकता और मनोबल का प्रभाव होने के कारण इन कार्यों का विचार भी नहीं कर सकता, किन्तु विग्रहगति में ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मों का बन्ध अवश्य होता है, क्योंकि कषाय व योग का सद्भाव है, अतः विग्रहगति में जीव ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मों को करता है। संस्कृत टीकाकार का यह भाव समझना चाहिये।
-जें. ग. 9-1-64/ ६. आदिसागर विग्रहगति में अनाहारक अवस्था में सम्भव ज्ञान व गुणस्थान शंका-विग्रहगति में कौन गुणस्थान व ज्ञान सम्भव है ?
समाधान-'विग्रहगतौ कर्मयोगः।" इस सूत्र के अनुसार विग्रहगति में कार्मणकाययोग होता है । विण्गति कार्मणकाययोग में मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और प्रविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गणस्थान होते हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, कुमतिज्ञान और कुश्रुतज्ञान ये पांच ज्ञान विग्रहगति में होते हैं। (धवल पु० २ पृ० ६६८-६६९ )
-जें. ग. 23-7-70/VII/ रो. ला. मित्तल
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