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________________ ३८६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : कोई नियम नहीं है। ऐसा क्यों लिखा है ? और भी प्रश्न खड़ा होता है कि भव्यजीव की अपेक्षा संसार का सांतकाल किस कारण से प्राप्त होता है ? यदि सम्यक्त्व के सिवाय और कोई दूसरा कारण हो तो अवश्य बतलाना चाहिये । इस विषय में पंचाध्यायी उत्तरार्ध में श्लोक ४३ देखो:-उसमें लिखा है कि 'जीव और कर्म का सम्बंध अनादि से चला आया है इसी सम्बंध का नाम संसार है, अर्थात् जीव की रागद्वेषरूप अशुद्ध अवस्था का ही नाम संसार है। यह संसार बिना सम्यग्दर्शन आदि भावों के छूट नहीं सकता है ?' इसका अभिप्राय यह है कि जबतक सम्यग्दर्शन नहीं होता तबतक मिथ्यात्वकर्म आत्मा के स्वाभाविक भावों को ढके रहता है। परन्तु जब सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है तब वह मिथ्यात्व नष्ट हो जाता है। इस तरह सम्यग्दर्शन आदि भावों से ही संसार छूटता है। भावार्थ-संसरणं संसारः' परिभ्रमण का नाम संसार है। चारों गतियों में जीव उत्पन्न होता रहता है, इसी को संसार कहते हैं। इस परिभ्रमण का कारण कर्म है। यह संसार तभी छूट सकता है जब कि संसार के कारणों को हटाया जाय । संसार के कारण मिथ्यादर्शनादि हैं। इनके प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शनादि हैं। जब ये सम्यग्दर्शनादिक भाव प्रात्मा में प्रकट हो जाते हैं तो फिर इस जीव का संसार भी छुट जाता है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध है कि, सम्यग्दर्शन प्राप्ति के समय से लेकर संसार का काल अर्धपुद्गलपरावर्तन रह सकता है। परन्तु सर्वार्थसिद्धि में अर्धपुद्गल परावर्तनकाल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है ऐसा कैसे कहते हैं ? समाधान-सर्वार्थसिद्धि अ० २ सूत्र ३ की टीका में बतलाया है कि 'अनादिमिथ्याष्टिभव्य के काललब्धि आदि के निमित्त से मोहनीयकर्म का उपशम होता है। वहां पर काललब्धि तीन प्रकार की बतलाई है (१) अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामक काल के शेष रहने पर प्रथमसम्यक्त्व के ग्रहण करने योग्य होता है। (२) जब बंधनेवाले कर्मों की स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर पड़ती है और विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यातहजारसागरकम अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर प्राप्त होती है तब यह जीव प्रथमसम्यक्त्व के योग्य होता है। (३) जो भश्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है वह प्रथमसम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। ____इन तीन काललब्धियों में से तीसरी काललब्धि ( भव्य, संशी पर्याप्तक, सर्वविशुद्ध ) का समय ( Time ) से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसका सम्बन्ध तो नाम कर्मोदय तथा आत्मपरिणामों से है। दूसरी काललब्धि का भी कोई सम्बन्ध समय (Time) से नहीं है, किन्तु प्रात्मपरिणामों की विशुद्धता से है, क्योंकि विशुद्धपरिणामों के कारण ही अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण कर्मस्थिति का बंध होता है। और पूर्व बंध हुए कर्मों की स्थिति का घात होकर संख्यातहजारसागर कम अन्तःकोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थिति रह जाती है । अतः यहाँ पर काललब्धि का अर्थ है "शुद्धात्मस्वरूपाभिमुख परिणाम की प्राप्ति ।" पंचास्तिकाय की टीका में कहा भी है "आगमभाषया कालादिलग्धिरूपं अध्यात्मभाषया शुद्धास्माभिमुखपरिणामरूपं ।" 'काल' शब्द का अर्थ 'विचाररूप परिणाम' करना अयुक्त भी नहीं है, क्योंकि कालशब्द कल धातु से बना है। कल धातु का अर्थ "विचार करना' ऐसा भी पाया जाता है। 'अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामक काल के शेष रहने पर' इसका ऐसा अर्थ करना-'संसारकाल के अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र शेष रह जाने पर' युक्त नहीं है, क्योंकि आचार्य-वाक्य में 'संसार' शब्द नहीं है। इसका अभिप्राय यह भी हो सकता है-"[ प्रत्येक पुद्गलपरिवर्तन में ] अर्घपुद्गल परिवर्तन नामक काल के शेष रहने पर" प्रायोग्यलब्धि में जिस प्रकार सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति का, आत्माभिमुख परिणामों के द्वारा, घात करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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