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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३८५ श्री पं० जयचन्दजी कृत अर्थ-कैसा है जिनधर्म भाविभवमथन कहिये अागामी संसार का मथन करने वाला है, यात मोक्ष होय है ।
इससे सिद्ध है कि संसारकाल परिणामों के द्वारा छेदा जा सकता है। श्री कुन्दकुन्दआचार्य ने मूलाचार में कहा है
"एक्कं पंडिवमरणं छिददि जादी सदायाणि बहुगाणि।"
एकहुं पंडितमरण हैं सो बहुत जन्म के सेकडे नि को छेदे है। इससे जाना जाता है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्व के समय जो अर्धपुद्गलपरिवर्तन संसारकाल अवशेष रह गया था वह भी पंडितमरण अादि संयम परिणामों से छेदा जा सकता है।
प्रतः प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति से पूर्ववर्ती विशुद्ध परिणामों से अथवा प्रथमोपशमसम्यक्त्व से अनन्तसंसार काटकर मात्र अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर दिया जाता है।
-जें. ग. 3-7-69/VII/ RO...... (१) किसी मिथ्यात्वी के करणलब्धि में तथा किसी के सम्यक्त्वोत्पत्ति होने पर अनन्त संसार
सान्त होता है। (२) किसी मिथ्यादृष्टि के करणलब्धि में तथा किसी मिथ्यादृष्टि के सम्यग्दर्शन होने पर
मिथ्यात्व के तीन टुकड़े होते हैं।
शंका–सर्वार्थसिद्धि अ० २ सूत्र ३ को टीका में काललब्धि बतलाते समय कहते हैं कि कर्म युक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गलपरिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथमसम्यक्त्व के ग्रहण करने की योग्यता रखता
अर्थात जिस जीव के संसार में रहने का इतना काल शेष रहा है। उसे ही सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है। पर इतने काल के शेष रहने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होना ही चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है। तो भी इसके पहले सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती इतना सुनिश्चित है। अस्तु, यहां प्रश्न उठता है कि यदि संसारमें रहने का काल अभव्यजीव की अपेक्षा अनादिमनन्त है और भव्यजीव की अपेक्षा अनादिसांत है तो यह सांतकाल सम्यक्त्व की प्राप्ति से ही प्राप्त होने वाला है देखो कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रंथ में संसारानुप्रेक्षा के प्रकरण में पुद्गलपरिवर्तनसंसार के वर्णन करते समय कहते हैं कि 'इस पुद्गलपरिवर्तनसंसार में जीव अनन्तबार पुद्गलपरिवर्तनरूप संसार का उपयोग लेकर त्याग किया है।' और भी कहते हैं कि 'जब तक इस जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती है तब तक इस जीव की संसार की समाप्ति नहीं होती।' इससे यह स्पष्ट सिद्ध है कि सम्यग्दर्शन प्राप्ति के समय से लेकर यह जीव इस संसार में रहे तो अधिक से अधिक अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक रह सकता है। परन्तु सर्वार्थसिद्धि की टीका में लिखा है कि अर्धपुद्गलपरावर्तनकाल शेष रहने पर या रहा है उसे ही सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है। यह कैसे सम्भव है ? इसलिए प्रश्न है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद अधिक से अधिक अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल इस संसार का रहता है या संसार का अर्धपुद्गलपरिवतनमात्र काल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है ? इसका स्पष्ट उत्तर चाहिये। यदि इतने काल के शेष रहने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तो फिर इतने काल के शेष रहने पर सम्यग्दर्शन को प्राप्ति होनी ही चाहिए ऐसा
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