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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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श्री वीरसेनाचार्य ने ज० ध० पु० २ में कहा भी है"वेदगसम्माइट्ठी० अत्थि अट्ठावीस-चउबीस-तेवीस-बावीसपडिट्ठाणाणि ।" (पृ० २०८ ) अर्थ-वेदकसम्यग्दृष्टियों के अट्ठाईस, चौबीस, तेईस और बाईसप्रकृतिरूप स्थान होते हैं ।
"वेबगसम्माइद्विस्स अट्ठावीस-चउबीसविह" कस्स ? अण्णचउगइसम्माइटिस्स । तेवीसविहकस्स ? मणुस्सस्स मस्सिणीए वा । वावीसविह० कस्स ? अण्ण० चउगइसम्माइट्ठिस्स अक्खीणवंसणमोहणीयस्स।" (पृ० २३२ )
अर्थ-वेदक सम्यग्दृष्टियों में अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? चारोंगतियों के किसी भी सम्यग्दृष्टि के होते हैं। तेईस विभक्ति स्थान किसके होते हैं ? मनुष्य या मनुष्यनी के होते हैं । बाईस विभक्ति स्थान किसके होता है ? जिस ने दर्शन मोहनीय का पूरा क्षय नहीं किया ऐसे चारों गतियों के किसी भी कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जीव के होता है।
-णे. ग. 19-12-68/VIII/ मगनमाला (१) यह प्रावश्यक नहीं कि क्षयोपशमसम्यक्त्वी सम्यक्त्व सामान्य से च्युत न हो (२) दो छासठ सागर सम्यक्त्व ( बीच में मिश्रावस्था ) में बिताने वाला भी मिथ्यात्वी
हो जाता है
शंका-समाधिशतक पृ० ६५ में लिखा है कि क्षयोपशमसम्यक्त्व क्षायिक में बदल कर ही छूटता है। तो क्या क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि कुछकाल बाद नियम से क्षायिक में जायगा या मिथ्यात्व में भी जा सकता है ? यदि क्षायिक में बदलकर ही छूटता है तो और कौन से महान ग्रंथों में इसका उल्लेख है ? यदि मिथ्यात्व में भी जा सकता है तो समाधिशतक में और कौनसा आशय लेकर लिखा गया है ? कहीं-कहीं पर क्षयोपशमसम्यक्त्व को ६६ सागर को उस्कृष्टस्थिति बतलाई गई है तो इतने काल पश्चात् क्या वह क्षायिक में ही जायगा या मिथ्यात्व में भी जा सकता है?
समाधान-समाधिशतक की टीका पृ० ६५ पर श्री ब्र० शीतलप्रसाद ने इस प्रकार लिखा है- "इस मनुष्य को निरन्तर सोऽहं के भाव का अभ्यास करना चाहिये। बार-बार अभ्यास के बल से सम्यक्त्व ऐसा मजबूत हो जाता है कि वह फिर कभी छुटता नहीं, चाहे क्षयोपशमसम्यक्त्व रहे या क्षायिक । क्षयोपशम यदि होता है तो क्षायिक में बदल कर ही मिटता है।"
यहां पर उस क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि का कथन है जिसने बार-बार अभ्यास के बल से दर्शनमोहनीयकर्म को अत्यन्त कृश करके अपने सम्यक्त्व को ऐसा मजबूत बना लिया है जो कभी नहीं छूटेगा। इसी से यह भी सिद्ध हो जाता है कि जिसने बार-बार अभ्यास नहीं किया और दर्शनमोहनीयकर्म को कृश करके अपने सम्यक्त्व को दृढ़ नहीं बनाया है उसका सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वकर्मोदय आने पर छूट भी जाता है। बार-बार की भावना से जिसका दर्शनमोहनीयकर्म कृश हो गया है वह तीनकरण द्वारा अनन्तानुबन्धीकर्मप्रकृतियों की विसंयोजना करता है। पुनः तीनकरण द्वारा क्रमशः दर्शनमोहनीयकर्म का क्षयकर क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो जाता है। फिर वह जीव कभी सम्यग्दर्शन से च्युत नहीं होता।
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