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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
"उप्पणस्स सम्मत्तस्स सिढिलभावुप्पाययं अधिरतकारणं च कम्मं सम्मत्तं णाम । कधमेवरस कम्मस्स सम्मत्तवबएसो ? सम्मत्तसहचारावो।" (धवल पु० १३ पृ० ३५८)
अर्थ-उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में शिथिलता का उत्पादक और अस्थिरता का कारणभूत कर्म सम्यक्त्व कहलाता है। सम्यक्त्व का सहचारी होने से इसकर्म की सम्यक्त्व संज्ञा है।
-जं. ग. 9-4-70/VI/ रो. ला. मि. (१) वेदकसम्यक्त्वी के अनन्ता० ४ तथा मिथ्यात्वद्विक का परमुखोदय
(२) वेदकसम्यक्त्वी के विविध सत्त्वस्थान एवं स्वामी
शंका-क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वप्रकृति का वर्तमान में उवय रहता है और सर्वघाती का उपशम है। उसके २८ प्रकृति की सत्ता कैसे होगी?
समाधान-सम्यग्दर्शन की घातक अनन्तानुबंधीकषाय तथा दर्शनमोहनीयकर्म की तीन प्रकृतियां हैं (१) मिथ्यात्वप्रकृति, २. सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, ३. सम्यकप्रकृति । इन तीन में से मिथ्यात्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति सर्वघाती हैं, क्योंकि इनके उदय में सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता है। सम्यक्त्वप्रकृति देशघाती है. क्योंकि इसके उदय में भी सम्यग्दर्शन रहता है।
श्री जयसेनाचार्य ने समयसारग्रन्थ में कहा भी है
"सम्यक्त्वप्रकृतिस्तु कर्मविशेषो भवति तथापि यथा निविषीकृतं विषं मरणं न करोति । तथा शुद्धात्माभिमख्यपरिणामेन मंत्रस्थानीयविधिविशेषमात्रेण विनाशितमिथ्यात्वशक्तिः सन क्षायोपशमिकाविलग्धिपंचकजनित. प्रथमोपशमिक सम्यक्त्वान्तरोत्पन्नवेदकसम्यक्त्वस्वभावं तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं जीव परिणामं न हंति ।"
जिसप्रकार मंत्र प्रादि के द्वारा विष की मारणशक्ति का अभाव करके विष को निर्विष कर दिया जाता है। ऐसा विष मरण नहीं कराता है। उसी प्रकार शुद्धात्माभिमुखपरिणामरूप विशुद्धिविशेषमंत्र के द्वारा जिस मिथ्यात्वकर्म की शक्ति नाश कर दी गई है ऐसा सम्यवत्वप्रकृतिरूप दर्शनमोहनीय कर्म आत्मा के सम्यक्त्वस्वभाव अर्थात तत्त्वार्थश्रद्धानरूप परिणामों को नाश नहीं करता है।
क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वप्रकृति का उदय रहता है और मिथ्यात्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का स्वमुख उदय का अभाव है, किन्तु अनुभाग का क्षय होकर परमुख अर्थात् सम्यक्त्वप्रकृतिरूप उदय होता है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्क का भी स्वमुख उदय नहीं होता, अनुभाग क्षय होकर परमुख उदय होता है और इन्हीं छह प्रकृतियों ( मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधीचतुष्क) का सदवस्थारूप उपशम रहता है । इसप्रकार क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि के मोहनीयकर्म की २८ प्रकृतियों की सत्ता रहती है।
अनन्तानबन्धीचतष्क का विसंयोजन हो जाने पर २४ प्रकृतियों का सत्त्व रह जाता है। क्षायिकसम्यक्त्व के अभिमुख के मिथ्यात्व का क्षय हो जाने पर २३ प्रकृतियों का सत्त्व रहता है, और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का भी नाय हो जाने पर २२ प्रकृतियों का सत्त्व रहता है। इसप्रकार क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि के २८, २४, २३.२२ में मोहनीयकर्म के चारप्रकृति स्थान होते हैं।
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