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[ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
का शरीर सूर्यसमान, मध्यमभोगभूमिवालों का शरीर चन्द्रसमान तथा जघन्य भोगभूमिबालों का शरीर हरितवर्स का होता है। इसप्रकार नारकियों के द्रव्यलेश्या कृष्ण कही गई है। भावलेश्या का कथन गोम्मटसारजीवकाण्ड गाथा ५२९ में है जो निम्न प्रकार है
काऊ काऊ काऊ, णीला णीला ब गील किम्हा य । किण्हा य परमकिण्हा लोस्सा पढमादि पुढवीणं ॥ ५२९॥
अर्थ-पहली धम्मा या रत्नप्रभा पृथ्वी में कापोतलेश्या का जघन्य अंश है। दूसरी वंशा या शर्कराप्रभा पृथ्वीमें कापोतलेश्या का मध्यम अंश है। तीसरी मेघा या वालुकाप्रभा पृथ्वी में कापोतलेश्या का उत्कृष्ट अंश और नीललेण्या का जघन्य अंश है। चौथी अंजना या पंकप्रभा पृथ्वी में नील लेश्या का मध्यम अंश है। पांचवीं अरिष्टा या धूमप्रभा में नीललेश्या का उत्कृष्ट अंश और कृष्णलेश्या का जघन्य अंश है । छट्ठी मघवी या तमःप्रभा पृथ्वीमें कृष्णलेश्या का मध्यम अंश है । सातवीं माधवी या महातमःप्रभा पृथ्वी में कृष्णलेश्या का उत्कृष्ट अंश है ।
इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धि में भावलेश्या का कथन अ० ३ सू० ३ की टीका में है।
"प्रथमाद्वितीययोः कापोतलेश्या, तृतीयायामुपरिष्टात् कापोती अधो नीला, चतुर्थ्या नीला, पंचम्यामुपरि नीला अधः कृष्णा, षष्ठ्यां कृष्णा, सप्तम्यां परमकृष्णा।"
अर्थ-प्रथम और दूसरी पृथिवी में कापोतलेश्या है। तीसरी पृथिवी में ऊपर के भाग में कापोतलेश्या है और नीचे के भाग में नीललेश्या है चौथी पृथिवी में नीललेश्या है। पांचवों पृथिवी में ऊपर के भाग में नीललेश्या है और नीचे के भाग में कृष्णलेश्या है । छठी पृथिवी में कृष्णलेश्या है और सातवीं पृथिवी में परमकृष्णलेश्या है।
इस प्रकार गोम्मटसार और सर्वार्थ सिद्धि दोनों ग्रन्थों में नारकियों के तीन अशुभ भावलेश्या कही हैं।
-जं. ग. 1-6-72/VII/र. ला. जैन
भवनत्रिकों में अपर्याप्तकाल भावी लेश्याएँ
शंका-सर्वार्थसिद्धि (ज्ञानपीठप्रकाशन ) में पृष्ठ १७४ पर पं० फूलचन्द्रजी सा० ने विशेषार्थ में लिखा है कि भवनत्रिकों के अपर्याप्तअवस्था में पीतान्त चार लेश्याएँ कही हैं, किन्तु जीवकाण्ड गाथा ५३५ में अशुभ तीन लेश्याएँ कही हैं । कौनसा कथन ठीक है ?
समाधान-इस कथन में पं० फूलचन्दजी साहब से भूल होगई । उनको यह ध्यान नहीं रहा कि भवन त्रिक या कर्म-भूमिया मनुष्य तिर्यंच में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि के अपर्याप्त अवस्था में तीन प्रशुभलेश्याएं होती हैं यदि मरण के समय शुभ लेश्या भी हो तो भी मरण होते ही [ तत्पश्चात् ] वह शुभ लेश्या अशुभरूप परिणमन कर जायगी। जैसे सोलहवें स्वर्ग के मिथ्यादृष्टि देव के अन्त समय तक शुक्ललेश्या है, किन्तु देवायु पूर्ण होते ही मनुष्यायु के प्रथम समय में ही शुक्ललेश्या अशुभ लेश्यारूप परिणमन कर लेगी। कहा भी है-मनिममसक्कोस्सि. ओ देबो जहा छिष्णाउओ होदूण जहण्णसुक्काइणा अपरिणमिय असुहतिलोस्साए णिवददि । [ धवल पु० ८ पृ० ३२२ ] ।
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