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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ३२३ विग्रहगतिस्थ नारकियों के भी भावलेश्या शुभ नहीं होती शंका-नारकियों के विग्रहगति में शुक्ललेश्या कैसे होती है ? शुक्ललेश्या तो बहुत शुभ परिणाम वालों के होती हैं ?
समाधान-नारकियों के विग्रहगति में भावलेश्या तो अशुभ ही होती है, किन्तु द्रव्यलेश्या शुक्ल होती है । क्योंकि शरीर के वर्ण को द्रव्यलेश्या कहते हैं, और संपूर्ण कर्मों का विस्रसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिये विग्रहगति में विद्यमान संपूर्ण जीवों के शरीर की शुक्ललेश्या होती है। पार्षप्रमाण इसप्रकार है
"वग्णोदयेण जणियो सरीरवण्णो दु दब्बदो लेस्सा ॥४९४॥" ( गो० जी० )
"जम्हा सम्बकम्मस्स विस्ससोवचओ सुक्किलो भवदि तम्हा विग्गहगदीए वट्टमाण-सव्व-जीवाणं सरीरस्स सुक्कलेस्सा भवदि।" ( धवल पु० २ पृ० ४२२ )
धवल पु० २ १० ४५० पर "भावेण किण्ह-णील-काउलेस्साओ।" इन शब्दों द्वारा यह कहा गया है कि नारकियों के अपर्याप्तमवस्था में कृष्ण-नील-कापोत ये तीन अशुभ भावलेश्या होती हैं। किसी भी आर्षग्रन्थ में नारकियों के पीत-पद्म-शुक्ल इन तीन शुभ-भाव-लेश्या का कथन नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि नारकियों के भी शुभलेश्यारूप भाव नहीं होते हैं।
-जे. ग. 2-3-72/VI/ क. घ. नॅन
सभी नारकियों के द्रव्य एवं भाव से लेश्याएं शंका-गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४९६ में कहा है कि नारकियों के कृष्ण लेश्या होती है, किन्तु सर्वार्थ सिद्धि में नारकियों के तीन लेश्या बतलाई है। गोम्मटसार में किस अपेक्षा यह कथन है ?
समाधान-गोम्मटसार जीवकांड गाथा ४९४ से ४९८ शरीर के वर्ण की अपेक्षा द्रव्यलेश्या का कथन है । कहा भी है
वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दूदग्वदो लोस्सा। सा सोढा किण्हादी अणयभेया सभेयेण ॥४९४ ॥
अर्थ-वर्ण नामकर्मोदय से जो शरीर का वर्ण होता है उसको द्रव्य-लेश्या कहते हैं। इसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल ये छह भेद है। तथा प्रत्येक के उत्तर भेद अनेक हैं।
गिरया किण्हा कप्पा भावाणुगया ह तिसरणरतिरिये।
उत्तरदेहे छक्के भोगे रविचंदहरिदंगा ॥४९६ ॥ अर्थ-सम्पूर्ण नारकी कृष्ण वर्ण ही हैं, कल्पवासीदेवों के शरीर का वर्ण भर्थात् द्रव्यलेश्या भावलेश्या अनुसारी होती है। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, मनुष्य, तियंचों की द्रव्यलेश्या छहों होती हैं। देवों के विक्रिया द्वारा उत्पन्न होनेवाले उत्तर शरीर का वर्ण छहों प्रकार में से किसी एक प्रकार का होता है। उत्तमभोगभूमिबालों
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