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। पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-इस सूत्र में 'सुश्रु त' ज्ञान से प्रयोजन है । सुश्रु तज्ञान मात्र संज्ञी जीवों के ही होता है, क्योंकि संज्ञी जीव ही सम्यग्दृष्टि होते हैं। असंज्ञीजीवों को सम्यग्दर्शन नहीं होता। एकेन्द्रियादि असंज्ञीजीवों के कुश्र तज्ञान होता है। धवल पु०१ सूत्र ११६ में कहा है कि मत्यज्ञानी और श्रु ताज्ञानीजीव एकेन्द्रिय से लेकर सासादनगुणस्थान तक होते हैं । इसकी टीका में श्रु ताज्ञान के विषय में निम्नप्रकार से लिखा है
"अमनसां तदपि कथमिति चेन्न, मनोऽन्तरेण वनस्पतिषु हिताहितप्रवृत्ति निवृत्त्युपलम्मतोऽनेकान्तात् ।" मनरहित जीवों के श्रु ताज्ञान कैसे सम्भव है ? नहीं, क्योंकि मन के बिना वनस्पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है ।
-पत्राचार | ज. ला. जैन, भीण्डर
एकेन्द्रियों में श्रुतज्ञानोपयोग शंका-एकेन्द्रिय आदि में श्रु तज्ञान-उपयोगरूप होता है या नहीं? या लम्धिरूप ही रहता है ?
समाधान-- धवलाकार के मतानुसार एकेन्द्रियादि जीवों में भी श्रुतज्ञान-उपयोगरूप होता है। 'मन के बिना वनस्पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिये मनसहित जीवों के ही श्रु तज्ञान मानने में उनसे अनेकान्त दोष प्राता है।' (धवल पुस्तक १, पृ० ३६१ )। एकेन्द्रिय जीवों में मन के बिना भी जाति विशेष के कारण लिंगीविषयक श्रु तज्ञान की उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता।" धवल पु० १३ पृ० २१० ।
-जे. सं. 30-10-58/V/ .. ला. एकादशांगधारी उसी भव में च्युत होकर मिथ्यात्व में चला जाता है शंका-क्या ग्यारह अंग का पाठी उस भव में मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है ?
समाधान-ग्यारह अग का पाठी उसी भव में मिथ्यात्व व असंयम को भी प्राप्त हो सकता है। जैसे रुद्र प्रादि।
-पताचार 16-10-80/ ज. ला. जैन, भीण्डर पूर्वश्रुत पठन का अधिकारी एवं उसके संसार-निवास का काल शंका-यद्यपि दसपूर्व का ज्ञाता हो परन्तु यदि वह चारित्ररहित हो तो उस आत्मा का निश्चय ही संसार में ही भ्रमण होता है या नहीं?
समाधान-असंयमी को दसपूर्व का ज्ञान नहीं हो सकता, एक अंग का भी ज्ञान नहीं हो सकता। भिन्नदसपूर्वी गिरकर असंयमी हो सकता है, किन्तु अभिन्नदशपूर्वी संयम से च्युत नहीं होता। भिन्नदशपूर्वी भी अर्चपूदगलपरावर्तन से अधिक संसार में भ्रमण नहीं करता।
-पत्राचार 4-7-80/ज.ला. जैन, भीण्डर
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