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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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चेवे त्ति वा अक्खरं। किमेस्स पमाणं ? केवलणाणस्स अणंतिमभागो। एवं णिरावरणं, 'अक्खरस्साणंतिमभागो णिच्चुग्धाडिययो' त्ति वयणादो एवम्मि आवरिदे जीवाभावप्पसंगादो वा। एवम्हि लद्धिअक्खरे सव्वजीवरासिणा भागेहिये सव्वजीवरासीदो अणंतगुणणाणा-विभाग-पडिच्छेदा आगच्छति ।" ( धवल पु० १३ पृ० २६२ )
अर्थ-सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्तकजीव के जो जघन्यज्ञान होता है, उसका नाम लब्ध्यक्षर है। नाश के बिना एक स्वरूप से अवस्थित रहने से केवलज्ञान अक्षर है, क्योंकि उसमें वृद्धि और हानि नहीं होती। द्रव्याथिकनय की अपेक्षा चूकि सूक्ष्मनिगोद-लब्ध्यपर्याप्तकजीव का ज्ञान भी वही है, इसलिये इस ज्ञान की भी अक्षरसंज्ञा है। इसका प्रमाण केवलज्ञान का अनन्तवाँभाग है। यह ज्ञान निरावरण है, क्योंकि अक्षर का अनन्तवांभाग नित्य उद्घाटित रहता है, ऐसा आगम वचन है अथवा इसके आवृत्त होने पर जीव के अभाव का प्रसंग आता है। इस लब्ध्यक्षरज्ञान में सब जीवराशिका भाग देने पर ज्ञानाविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा सब जीवराशि से अनन्तगुणा लब्ध होता है । अर्थात् लब्ध्यक्षरज्ञान के अविभागप्रतिच्छेद सर्वजीवराशि से अनन्तगुणे हैं ।
-जं. ग. 19-8-71/VII/ रो. ला. मि. जिस श्रुतज्ञान के भेद का हमें ज्ञान नहीं, उसके सर्वघाती स्पर्धकों का उदय ज्ञातव्य है
शंका-किसी जीव के 'अक्षरसमास' अ तज्ञान वर्तमान में है तो उसके अक्षरसमास से ऊपर वाले ज्ञान 'पद', 'पदसमास' आदि सम्बन्धी ज्ञानावरणों के सर्वघातिस्पर्धकों का उदय है ना?
समाधान-पद, पदसमास आदि सम्बन्धी सर्वघाती ज्ञानावरण का उदय है।
-पत्र 6-5-80/ ज. ला. जैन, भीण्डर देशघाती स्पर्धकोदय का कार्य शंका-जिसे अक्षरसमास तज्ञान हो गया है उसके 'अक्षरसमास' श्रुतज्ञानावरणीयकर्म के देशस्पर्धकों का उदय है या नहीं? यदि जिसे अक्षरसमास तज्ञान है और उसके अक्षरसमास श्रुतज्ञानावरणीय कर्मों के देशघाती. स्पर्धकों का उदय भी है तो प्रश्न यह है कि जब उस जीव के अक्षरसमास तज्ञान पूरा-पूरा ही है तब उस जीव के अक्षर समासावरणीयकर्म के देशघातीस्पर्धकों ने उवित होकर क्या किया? किञ्च, जिस उपयुक्त जीव को अक्षरसमास श्र तज्ञान है उस जीव के अक्षरसमास अ तज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम न मानकर क्षय माना ज बनता नहीं, क्योंकि श्रुतज्ञानावरणकर्म के क्षय से श्रु तज्ञान का प्रकट होना बनता नहीं, ऐसा आर्षवाक्य है, समाधान करें।
समाधान-देशघातीस्पर्धक यह कार्य करते हैं, क्रमसे ज्ञान होता है। क्षेत्र के भीतर आने पर पदार्थ का ज्ञान होता है। इन्द्रिय, मन व प्रकाश आदि के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान में हीनाधिकता देशघातिया कर्मोदय से ही होती है।
-पल 6-5-80/ ज. ला. जैन, भीण्डर एकेन्द्रियों में श्रु तज्ञान का अस्तित्व शंका-'अ तमनिन्द्रियस्य' सूत्र में बतलाया गया है कि श्रु तज्ञान मन का विषय है । एकेन्द्रियादि असंही जीवों के श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है ?
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