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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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कार्मण-काय-योग में नामकर्म की २१ प्रकृतियों का उदय पाया जाता है, उनमें औदारिकशरीर नामकर्मोंदय नहीं है । धवल पु० १पृ. १३८ पर उपर्युक्त वाक्य में 'उदय' के स्थान पर 'सत्त्व' होना चाहिये, क्योंकि मूल में 'सत्त्वतः' है।
-जें. ग. 3-2-72/VI) प्या. ला. ब.
वेद मार्गरणा
विभिन्न गतियों में वेदों को प्ररूपणा
शंका-किसी भी गति में वेद ३ व २ व१मान लेवें या इससे होनाधिक मान लेवें तो क्या अन्तर पड़ता है ? क्या आगम से बाधा आती है ? परवस्तु के अन्यथा मानने से क्या फर्क पड़ता है ?
समाधान-आर्षग्रन्थों में जिस गतिमें जितने वेद कहे गये हैं, उतने ही मानने चाहिये। हीनाधिक मानने से आर्षग्रन्थ विरुद्ध श्रद्धा होती है । जिसको आर्षग्रन्थ के कथन पर श्रद्धा नहीं है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है।
श्री तत्वार्थ सूत्र दूसरे अध्याय में किस गति में कौनसा वेद होता है उसका कथन निम्नप्रकार हैनारक संमूच्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ न देवाः ॥५१॥ शेषास्त्रिवेदाः ॥५२॥
अर्थ-नारकगति और सम्मूर्छन 'मनुष्य व तिर्यंच' जीवों में मात्र नपुंसकवेद होता है अर्थात् स्त्री व पुरुष वेद नहीं होता है । देवों में नपुसक वेद नहीं होता है, मात्र पुरुष व स्त्री ये दो ही वेद होते हैं । गर्भज-मनुष्य व तियंचों में स्त्री, पुरुष व नपुंसक तीनों वेद होते हैं ।
___तिरिक्खा तिवेदा असण्णिपंचिदिय-प्पहुडि जाव संजदा-संजदा ति ॥१०७॥ मगुसा तिवेदा मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ॥१०८॥ [ संतपरूवणाणुयोगद्दार ]
अर्थ-तिर्यच असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं । १०७ । मनुष्य मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरणगुणस्थान तक तीनों वेद वाले होते हैं ।
इन आर्षवाक्यों के विरुद्ध यदि किसी की यह श्रद्धा हो कि असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचों के तीनों वेद नहीं होते मात्र नपुसकवेद ही होता है, तो उसकी यह श्रद्धा ठीक नहीं है।
जो इन आर्षवाक्यों को प्रमाण नहीं मानता, किन्तु अपनी निज की इनसे पृथक् मान्यता रखता है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता। कहा भी है
पदमक्खरं च एक्कं पि जो " रोचेदि सुत्तणिहिटुं।
सेसं रोचतो वि हु मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ ३९ ॥ मूलाराधना अर्थ-सूत्र में कहे हए एक पद की और एक अक्षर की भी जो श्रद्धा नहीं करता है और शेष की श्रद्धा करता हुआ भी वह मिथ्यादृष्टि है।
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