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________________ २६८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : श्रदारिकशरीर नामकर्मोदय से उत्पन्न होती है । देव व नारकियों के कर्मग्रहणशक्ति अपर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर व वैक्रियिकशरीर के मिश्रण से उत्पन्न होती है और पर्याप्त अवस्था में वैक्रियिकशरीरनामकर्मोदय से उत्पन्न होती है । प्रमत्तसंयत मुनि के आहारकशरीर नामकर्मोदय से उत्पन्न होती है । तैजसशरीरवर्गणा न तो कर्म-वर्गरणा है और न नोकर्मवगंगा है, अतः तैजसशरीर नामकर्मोदय से आत्मा में कर्मग्रहणशक्ति उत्पन्न नहीं होती है । " परिस्पन्दनरूपपर्याय: क्रिया । जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरङ्गसाधनं कर्मनो कर्मोपचयरूपा पुदगला इति ते पुद्गल कारणः । तद भावान्निः क्रियत्वं सिद्धानाम् । पं. का. ९८ । प्रदेशपरिस्पंदनरूप पर्याय क्रिया ( योग ) है । कर्म-नोकर्म के संचयरूप पुद्गल ( शरीर ) के निमित्त से क्रिया ( योग ) होता है । उसके अभाव होने से सिद्ध निष्क्रिय ( प्रयोगी ) हैं । - जै. ग. 3-2-72/VI / स. कु. रोकले कार्मर काययोग के उत्कृष्ट अन्तर की सिद्धि शंका - धवल पु० ७ पृ० २१२ सूत्र ७९ में कार्मणकाययोग का उत्कृष्ट अन्तर बताया है सो कैसे ? समाधान - कार्मण काययोग विग्रहगति व केवलीसमुद्घात में होता है । केवली समुद्घात की अपेक्षा कार्याणकाययोग का अन्तर संभव नहीं है । अंगुल के असंख्यातवेंभागप्रमाण असंख्यातासंख्यात कल्पकाल तक जीव जन्ममरण करता रहे, किन्तु ऋजुगति से ही उत्पन्न होता रहे विग्रहगति से उत्पन्न न हो, ऐसा संभव है । इसीलिये कार्मारणकाययोग का उत्कृष्ट अन्तर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यात कल्पकाल बतलाया है तथा आहारमार्गणा में आहारक का उत्कृष्टकाल भी अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात कल्पकाल कहा है, धवल पु० ७ पृ० १८५ सूत्र २१२ । - जै. ग. 5-12-66 / VIII / र. ला. जैन, मेरठ कार्मणकाययोग में श्रदारिक शरीरनामकर्म का उदय नहीं रहता शंका – धवल पु० १ ० १३८ पर लिखा है- “ नोकर्मरूप पुगलों के संचय का कारण पृथिवी आदि कर्म सहकृत औदारिकादि नामकर्म का उदय कार्मणकाययोग रूप अवस्था में भी पाया जाता है, इसलिये उस अवस्था में भी कायपने का व्यवहार बन जाता है ।" क्या कार्मणकाययोग में औदारिकशरीर का उदय रह सकता है ? समाधान — कार्मणका योग विग्रहगति में होता है या केवलीसमुद्घात में होता है, किन्तु वहाँ पर प्रौदारिकशरीर नामकर्मोदय नहीं होता, क्योंकि वहाँ पर आहारवर्गणाओं का ग्रहण नहीं होता है । कहा भी है - Jain Education International " तिर्यग्गतिद्वयं २, पंचेन्द्रियं १, तैजस- कार्मणद्वयं २, वर्णचतुष्कं ४, अगुरुलघुकं १, त्रसं १, बाबरं १, स्थिरास्थिरयुग्मं २ शुभाशुभद्वषं २, निर्माणं १, सुभगासुभगयशोऽयशः पर्याप्त पर्याप्ताऽऽदेयानावेयानां चतुर्युगलानां मध्ये एकतरं 91919 19 इत्येकविंशतिर्नामप्रकृतयो विग्रहगतौ उदयन्ति २१, उद्योतोदयरहितपंचेन्द्रियजीवस्य विग्रहगत कार्मणशरीरे इदमेकविंशतिक मुदयगतं भवतीत्यर्थः अनेकः समयो द्वौ समयौ वा ।" ज्ञानपीठ से प्रकाशित पंचसंग्रह पृ० ३६३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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