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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
आहारक काययोग संबंधी विभिन्न विशेषताएँ शंका-(१) आहारककाययोग होने पर आहारकशरीर को लौटने में कितना काल लगता है ? क्या एक समय में भी लौट सकता है ?
(२) जब आहारककाययोग में मरण होता है तो वह आहारककाययोग का व्याघात क्यों नहीं ?
(३) आहारकमिश्रकाययोग पूर्वक ही आहारककाययोग होता है । आहारकमिश्रकाययोग का काल अन्त. मुंहूतं है फिर आहारककाययोग का जघन्य अन्तर एक समय कैसे सम्भव है ?
समाधान-(१)आहारककाययोग होने पर आहारकशरीर को लौटने में एक अन्त मुहूर्त काल लगता है। (२) 'व्याघात' का अभिप्राय मरण नहीं है; किन्तु 'आघात' 'बाधा' 'विघ्न' 'खलल' है ।
(३) सर्व प्रथम आहारककाययोग से पूर्व आहारकमिश्रकाययोग होता है। आहारककाययोग होने के पश्चात् मनोयोग या वचनयोग होकर पुनः आहारककाययोग हो जाता है । जिसके पाहारकसमुद्घात हो रहा है उसके मनोयोग या वचनयोग का जघन्यकाल एकसमय व्याघात के कारण नहीं होता है, ( धवल पु०७ पृ० २१० सूत्र ७५ की टीका ) किन्तु औदारिक या वैक्रियिकशरीर वालों के व्याघात के कारण मनोयोग या वचनयोग का एकसमय काल पाया जाता है (धवल पु०७ पृ० २०७ सूत्र ६६, पृ० २०९ सूत्र ६९ )। इसीलिये आहारककाययोग का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है और औदारिककाययोग व वैक्रियिककाययोग का जघन्य अन्तर एक समय कहा है।
-जं. ग. 19-9-66/IX/ र. ला.जैन, मेरठ पाहारक मिश्रकाययोग के एक समय बाद मरण
शंका-धवल पु०७पृ० २११ पर आहारककाययोग का उत्कृष्ट अन्तर आठ अन्तर्मुहतं कम अर्धपुदगलपरिवर्तन और आहारकमिश्र का ७ अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन बताया है। यह कैसे ? दोनों का अन्तर एक होना चाहिये, क्योंकि आहारकमिश्रके तुरन्त पश्चात् आहारककाययोग प्रारम्भ हो जाता है ।
समाधान-यह ठीक है कि आहारकमिश्रकाययोग के तुरन्त पश्चात् पाहारककाययोग प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु आहारकमिश्रकाययोग का जघन्यकाल भी अन्तर्मुहूर्त है जबकि आहारककाययोग का जघन्यकाल एक समय है। [ धवल पु०७ पृ० १५३ सूत्र १०६ व पृ० १५५ सूत्र १०८ ] आहारकमिश्रकाययोग के पश्चात् एकसमय तक आहारककाययोगी रहकर मरण को प्राप्त हो जाने पर आहारककाययोग का अन्तमुहर्त कम हो जाने से आहारकमिश्रकाययोग के उत्कृष्ट अन्तर में ७ अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल सुघटित हो जाता है।
-जे. ग. 19-9-66/IX/ र. ला. जैन, मेरठ तेजस शरीर प्रात्मप्रदेश परिस्पन्दन का कारण नहीं
शंका-तैजसशरीर नामकर्म के उदय से तैजसवर्गणायें आती होंगी। उनके आलम्बन से भी तो आत्मप्रदेशों का परिस्पन्न होता होगा, यदि हाँ तो बह कौन-से योग में गभित है? उसे अलग क्यों नहीं कहा?
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