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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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- औदारिकमिश्रकाय-योग का उत्कृष्ट अन्तर प्रारंभ करने के लिये 'नारकी जीव से निकलकर पूर्वकोटिआयूवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुमा', ऐसा इसलिये कहा कि पूर्वकोटिप्रायु में प्रौदारिकमिश्र काययोग का काल अतिअल्प होने से औदारिककाययोगकाल अधिक हो जावेगा जिससे अन्तरकाल अधिक हो जाता है। अन्यगति से आकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वालों का औदारिकमिश्रकाययोग काल अल्प नहीं होता।
-ज. ग. 5-9-66/VII/ र. ला. जैन, मेरठ
औदारिकमिश्रकाययोग का जघन्य अन्तर
शंका-धवल पु. ७० २०७ सूत्र ६६ में औदारिकमिश्रकाययोग का एक समय का अन्तर बतलाया है। टीका में 'औदारिकमिश्रकाययोग से एक समय कार्मण काययोग में रहकर पुनः औदारिकमिभकाययोग हो गया' ऐसा कथन किया है । औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्त अवस्था में होता है तो क्या अपर्याप्त अवस्था में मरण संभव है?
समाधान-नित्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त ऐसे दो प्रकार के अपर्याप्त के जीव होते हैं। उनमें से नित्यपर्याप्त अवस्था में तो मरण नहीं होता है, पर्याप्त होने के पश्चात् मरण होता है, क्योंकि उनके पर्याप्तनामकर्म का उदय होता है । निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में पर भव की आयु का बन्ध नहीं होता है, पर्याप्ति पूर्ण होने के एक अन्तर्मुहूर्त पश्चात् पर भव प्रायु का बंध संभव है, परभव प्रायुबन्ध बिना मरण सम्भव नहीं है।
लब्ध्यपर्याप्त का अपर्याप्त अवस्था में ही मरण होता है, क्योंकि उसके अपर्याप्तनामकर्म का उदय होता है। लब्ध्यपर्याप्त जीवों के औदारिकमिश्रकाययोग होता है। अतः लब्ध्यपर्याप्त जीव की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोग में मरण होने से और एकविग्रह करके उत्पन्न होने वाले जीवों में औदारिकमिश्रकाययोग का एक समय अन्तर घटित हो जाता है।
-ज.ग. 30-7-76/VIII) र. ला. गैन, मेरठ
पाहारककाययोग का काल एक समय कैसे ?
शंका-आहारककाययोगी जीव के जघन्य एकसमय काल कैसे संभव है ? आहारककाययोगी क्या एकसमय में मरण कर सकता है ?
समाधान—एक प्रमत्त-संयत के अन्तर्मुहूर्त तक आहारकमिश्रकाययोग हुआ उसके पश्चात् माहारककाययोग हुआ उसके पश्चात् मनोयोग अथवा वचनयोग हो गया। आहारकशरीर के मूलशरीर में प्रविष्ट होने से एकसमय पूर्व आहारककाययोग हो गया, अगले समय में आहारकशरीर के मूलशरीर में प्रविष्ट हो जाने से प्राहारककाययोग नहीं रहा। जिस काल में आहारकशरीर मूलशरीर से बाहर होता है उस काल में मनोयोग व वचनयोग भी हो सकता है। मनोयोग या वचनयोग के पश्चात् एक समय के लिये आहारककाययोग हुआ और अगले समय
में मृत्यु को प्राप्त हो गया। इस प्रकार भी अाहारककाययोग का एक समय काल प्राप्त होता है। धवल पु०७ . पृ० १५४ सूत्र १०६ को टीका।
-जे. ग. 20-4-72/1x/य. पा.
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