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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
जो कार्य करने से पूर्व कार्य-अकार्य का, तत्त्व-अतस्व का विचार करता है, दूसरों के द्वारा दी गई शिक्षाओं को सीखता है और नाम लेने पर आ जाता है, वह समनस्क है । यहाँ पर "लब्धि" को भाव मन नहीं माना है।
-पलाचार/ज. ला. जैन, भीण्डर
प्रायु, उच्छवास की संज्ञा 'भावप्राण' कैसे?
शंका--पचास्तिकाय गाथा ३० की जयसेन-तात्पर्यवृत्ति में अशुद्ध निश्चयनय से जीव के भावरूप चार प्राण बतलाये हैं । आयु और उच्छ्वास भावप्राण कैसे घटित होते हैं ?
समाधान-मृतक शरीर में तो आयु व उच्छ्वासरूप प्राण नहीं होते। अत: इन प्राणों में अन्वयरूप से रहने वाला चित्सामान्य ही भाव प्राण है। कहा भी है
"इन्दियबलायुरुच्छ्वासलक्षणा तेषु चित्सामान्याचयिनो भाव प्राणः।"
अर्थ-प्राण इंद्रिय, बल, आयु तथा उच्छ्वासरूप है। उन प्राणों में चित्सामान्यरूप अन्वयवाले वे भाव प्राण हैं । ( पंचास्तिकाय गाथा ३० पर श्री अमृतचंद की टीका)।
-जं. ग. 3-4-69/VII/क्ष. श्री. सा.
संज्ञा
संज्ञानों के स्वामी और गुणस्थान शंका-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाएं क्या सब जीवों के होती हैं ? यदि नहीं तो कौन से गुणस्थान तक होती हैं ?
समाधान-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों संज्ञाएँ प्रमत्त गुणस्थान तक हर एक जीव के होती है। असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में आहार संज्ञा नहीं होती। भय प्रकृति के उदय का अभाव होने से नवें ( अनिवृत्तिकरण ) गुणस्थान में भयं संज्ञा भी नहीं रहती और इसी गुणस्थान के अवेद भाग में वेद का उदय न रहने से मैथुन संज्ञा भी नहीं रहती। दसवें गुणस्थान के अन्त तक ही कषाय का उदय रहता है अतः उपशान्तमोह आदि गुणस्थानों में परिग्रह संज्ञा का भी प्रभाव हो जाने से चारों ही संज्ञाएं नहीं होती हैं।
-जे. सं. 17-5-56/VI/म. प. मुजफ्फरनगर मार्गरणा
मार्गणा की अपेक्षा जीव के चौदह भेद शंका-व्यसंग्रह गाथा १३ में १४ मार्गणा व १४ गुणस्थानों को अपेक्षा संसारी जीवों को १४-१४ प्रकार का कहा है। १४ मार्गणा की अपेक्षा १४ प्रकार कैसे बनेंगे? उन १४ प्रकार के नाम क्या होंगे?
समाधान -द्रव्यसंग्रह की गाथा १३ निम्न प्रकार है
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