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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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( स ) वचन बल प्रारण का तो आर्ष ग्रन्थों में कथन पाया जाता है' ( धवल पु० २ पृ० ४१२ ) किन्तु 'भाव वचन' का प्रयोग किसी आर्ष ग्रन्थ में मेरे देखने में नहीं आया है। जब 'भाव वचन' ऐसी संज्ञा आर्ष ग्रंथों में नहीं मिलती तब वचन बल प्राण और भाव वचन के अन्तर का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है ।
(द) यद्यपि इन्द्रिय प्रारण और भावेन्द्रिय इन दोनों में इन्द्रियावरण कर्म तथा वीर्यान्तराय कर्म इन दोनों कर्मों के क्षयोपशम की अपेक्षा रहती है, तथापि भावेन्द्रिय प्राण मात्र क्षयोपशम रूप है और भावेन्द्रिय लब्धि ( प्राप्ति ) और उपयोग ( व्यापार ) दो रूप है । इसीलिये इन्द्रिय प्राण और भावेन्द्रिय इन दोनों में संज्ञा व लक्षण भेद है । जो इस प्रकार है
"चक्षुरिन्द्रियाद्यावरण क्षयोपशम लक्षणेंद्रियाणं" ( धवल पु० २ पृ० ४१२ ) " लब्ध्युपयोगो भावेन्द्रियम् (मोक्षशास्त्र २ / १८ ) लम्भनं लब्धिः । ज्ञानावरणक्षयोपशमे सत्यात्मनोऽर्थं ग्रहणे शक्तिः लब्धिरुच्यते । आत्मनोऽर्थ - ग्रहण उद्यमोऽर्थग्रहणे प्रवर्तनमर्थ ग्रह से व्यापरणमुपयोग उच्यते ।" "लाभो लब्धिः । यत्सन्निधानादात्मा बुध्येन्द्रिय निवृत्ति प्रति व्याप्रियते स ज्ञानावरणक्षयोपशम विशेषो लब्धिरिति विज्ञायते ।" ( तात्पर्यवृत्ति तथा राजवार्तिक २ / १८ ) । चक्षु आदि इंद्रियों के आवरण करने वाले कर्म के क्षयोपशम को इंद्रिय प्राण कहते हैं । लब्धि और उपयोग के भेद से भावेन्द्रिय दो प्रकार की है । लाभ अथवा प्राप्ति का नाम लब्धि है, ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष की प्राप्ति जिसके निमित्त से द्रव्य इंद्रियों की रचना हो, वह लब्धि है ।
- जै. ग. 5-2-76 / VI / ज. ला. जैन, भीण्डर
अपर्याप्त अवस्था में भाव मन तथा मनः प्राण का प्रभाव
शंका--संज्ञी जीवों के अर्याप्त अवस्था में मनःप्राण व भाव मन क्यों नहीं माना गया है ? जबकि अपर्याप्त काल में मनोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम पाया जाता है ।
समाधान — इंद्रियों के समान 'मन' को प्राण नहीं माना गया है किन्तु मनोबल को प्राण स्वीकार किया गया है । मनोबल प्राण पर्याप्त अवस्था में ही होता है अतः अपर्याप्त अवस्था में मनोबल प्राण नहीं कहा गया । मनोबल प्राण पर्याप्त का कार्य होने से पर्याप्त अवस्था में होता है। कहा भी है-उच्छ्वास भाषामनोबलप्राणाश्च तत्रैव विलीनाः तेषां पर्याप्ति कार्यत्वात् । ( धवला पु० २ पृ० ४१४ ) । अपर्याप्त अवस्था में मन - उपयोग का अभाव होने से भाव मन का सद्भाव स्वीकार नहीं किया गया है ।
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परन्तु स. सि. ५ / ११ / ५83 / पृ 212 में लिखा है कि- "वाद्विधा द्रव्यवाग् भाववागिति । अर्थ- वचन दो प्रकार के हैं - द्रव्यवचन और भाववचन । इनमें से भाववचन वीर्यान्तराय और मति श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के निमित्त से होता है । [ पृ. २१२] |
वचनबल प्राण में जीव के जीने की मुख्यता है। जबकि भाववचन में वह मुख्यता नहीं है। अतः कथंचित् भेद है। दोनों में मति श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम की अपेक्षा रहती हैं, अतः कथंचित् साम्य भी है।
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